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Thursday, 21 March 2019

होली पर कवितायेँ - कैलाश झा किंकर और हरिनारायण सिंह 'हरि'

होली
( हास्य का पिटारा -  होली पटाखा 2019 पढने के लिए -यहाँ क्लिक कीजिए )



दादा जी के संग चलें 
हम भी लेकर रंग चलें 

पास-पड़ोसी के बच्चे 
करने अब हुड़दंग चलें 

लाल,गुलाबी,पीले सब
हो जाएँगे अंग चलें 

नफरत जीतें उल्फत से 
कभी नहीं बेढंग चलें 

तंग हमें करने वाले 
हो जाएँगे तंग चलें ।
    (- कैलाश झा किंकर )      

...

किसके साथ मनायें होली, रामू चाचा सोच रहे हैं !




किसके साथ मनायें होली, रामू चाचा सोच रहे हैं 
इसी दिवस के लिए मरे थे? अपना माथा नोच रहे हैं!

बाँट -बाँट कर अलग हुए सब बोलचाल सब बंद पड़ा है
सबदिन तो जी लिये किसी विध, दिवस आज का क्यों अखरा है 
हाय पड़ोसी की क्या सोंचे, भाई सभी दबोच रहे हैं।

भाईचारा रहा नहीं वो, भौजाई अनजानी अब तो,
दीवारें अब ऊँची -ऊँची, मिल्लत हुई कहानी अब तो
अपने-अपने स्वार्थ सभी के,बचे कहाँ संकोच रहे हैं।

बेटे सब परदेश, बहू क्यों घर आयेगी, क्या करना है
होली और दिवाली में बस बुड्ढे को कुढ़-कुढ़ मरना है
आँगन-देहरी नीप रहे खुद, दुखे कमर, जो मोच रहे हैं।

गाने वाले होली को अब नहीं बचे हैं, ना उमंग है
किसी तरह दिन काट रहे हैं बूढ़े -बूढ़ी, ना तरंग है 
नवयुवकों में संस्कृति के प्रति सोच अरे जो ओछ रहे हैं।

हुआ गाँव सुनसान भाग्य इसका करिया है, यह विकास है
अब गाँवों से शहरों में होली बढ़िया है, यह विकास है 
दरवाजे पर बैठे चाचा रह-रह आँखें पोछ रहे हैं।
(-हरिनारायण सिंह 'हरि')
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कवि- कैलाश झा किंकर एवं हरिनारायण सिंह 'हरी'
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com

Friday, 8 March 2019

महिला दिवस पर विशेष कविता - नारी / पूनम कतरियार

नारी

पटना में 2018 में आदिल राशिद निर्देशित नाटक 'लांछन' का दृश्य बिहारी धमाका ब्लॉग से 

ये जो मौन,
मुस्कुराकर,
रह जाती हूं न,
हंसकर उड़ा देती हूं,
तल्ख बातों को.
नि:शब्द झेलती हूं,
चूभते-कटाक्षों को.
बहा देती हूं आंसूओं में
अदम्य इच्छाओं को.
नोंचकर फेंक देती हूं,
सपनों के पंखों को.
न....न...न...न...
कतई नहीं 'नारी' हूं,
निम्न या कमतर हूं,
निरीह या कमजोर हूं.
बस, इसलिए कि,
शेष मुझी में है,
स्निग्धता-तरलता.
मेरे ही भीतर जीती हैं,
मौज में संवेदनाएं.
आलोड़ित है मेरा ही उर,
प्रेम-करूणा,दया-माया से.
बीजवपन-पल्लवन करती,
तुम्हारी जिजीविषा को,
प्रेरित कर, उड़ान देती हूं
जमीं से आसमां तक तुम्हें,
नित नये आयाम देती हूं,
सपनों की पतंग को तुम्हारे.
हां, अहंकार का रावण,
जब लगता है लीलने तुम्हें,
हठधर्मिता से बलात्
संप्रभु बनना चाहते हो,
मेरी ही सृजित सृष्टि की.
खींच लेती हूं डोर,
दुर्गा-काली कहलाती हूं,
रणचंडी बन जाती हूं.
और सत्ता में अपनी,
भागीदारी भी दर्शाती  हूं.
.....
कवयित्री - पूनम कतरियार 
निवास - पटना 
पूनम कतरियार की दो कवितायेँ पहले भी रीडर्स पेज में प्रकाशित हो चुकी हैं. इनकी कविताओं का स्तर काफी ऊंचा है किन्तु ये अपनी पूरी पहचान नहीं दे रहीं हैं इसलिए हम इनकी कविताओं को अबतक मुख्य पेज पर नहीं प्रकाशित कर पाए हैं.