नारी
ये जो मौन,
मुस्कुराकर,
रह जाती हूं न,
हंसकर उड़ा देती हूं,
तल्ख बातों को.
नि:शब्द झेलती हूं,
नि:शब्द झेलती हूं,
चूभते-कटाक्षों को.
बहा देती हूं आंसूओं में
अदम्य इच्छाओं को.
नोंचकर फेंक देती हूं,
नोंचकर फेंक देती हूं,
सपनों के पंखों को.
न....न...न...न...
कतई नहीं 'नारी' हूं,
निम्न या कमतर हूं,
निरीह या कमजोर हूं.
बस, इसलिए कि,
शेष मुझी में है,
स्निग्धता-तरलता.
मेरे ही भीतर जीती हैं,
मौज में संवेदनाएं.
आलोड़ित है मेरा ही उर,
प्रेम-करूणा,दया-माया से.
बीजवपन-पल्लवन करती,
तुम्हारी जिजीविषा को,
प्रेरित कर, उड़ान देती हूं
जमीं से आसमां तक तुम्हें,
नित नये आयाम देती हूं,
सपनों की पतंग को तुम्हारे.
हां, अहंकार का रावण,
जब लगता है लीलने तुम्हें,
हठधर्मिता से बलात्
संप्रभु बनना चाहते हो,
मेरी ही सृजित सृष्टि की.
खींच लेती हूं डोर,
दुर्गा-काली कहलाती हूं,
रणचंडी बन जाती हूं.
और सत्ता में अपनी,
भागीदारी भी दर्शाती हूं.
.....
कवयित्री - पूनम कतरियार
निवास - पटना
पूनम कतरियार की दो कवितायेँ पहले भी रीडर्स पेज में प्रकाशित हो चुकी हैं. इनकी कविताओं का स्तर काफी ऊंचा है किन्तु ये अपनी पूरी पहचान नहीं दे रहीं हैं इसलिए हम इनकी कविताओं को अबतक मुख्य पेज पर नहीं प्रकाशित कर पाए हैं.
No comments:
Post a Comment
Note: only a member of this blog may post a comment.