सारी नदियाँ रेत-रेत हैं
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सारी नदियाँ रेत-रेत हैं
जल का नहीं पता है
कंठ-कंठ सब प्यासे-प्यासे
कितनी हुई खता है
कल-कल, छल-छल लोल लहर अब सपनों-जैसे लगते
कहाँ गयी हहराती धारा
अंतर हृदय उमगते
है भविष्य कैसा संतति का
चिंता रही सता है
मात्र नदी सुरसरि को समझा
गंगाजल को पानी
रिक्त-रिक्त होने की तबसे
है प्रारंभ कहानी
सूखे पेड़ करोड़ों-लाखों
मूर्छित हुई लता है
हम ऐसी संतान कि जिसको
कब चिन्ता पूर्वज की
हमें अंधेरी रात चाहिए
नहीं चाह सूरज की
नहीं भगीरथ अब आयेंगे
पीढ़ी रही बता है।
...
हमने खुद ही खुद का काम तमाम किया
चौर और पोखर को हमने भरभर कर
महल-अँटारी,मॉलों का निर्माण किया
काट-काट कर पेड़ और जंगल-झाड़ी
प्रकृति सुंदरी का भरसक अपमान किया
तब कहते हैं नहीं राह अब दिखती है
हमने जब खुद ही रस्ते को जाम किया
नदियों को बाँधा, जल को अवरुद्ध किया
गंदे नाले को उसमें ही गिरा दिया
बांट-बांटकर पानी ,लहरों को तोड़ा
फिर उसको पाने को सबको भिरा दिया
तब कहते हैं शुद्ध नहीं जल मिलता है
जब हमने ही सारा यह दुष्काम किया
लूट मची है, लूट-लूट घर भरते हैं
दोहन-शोषण सारा कुछ ही करते हैं
खाली-खाली बचा खजाना जब खाली
खाली-खाली देख आह क्यों भरते हैं
अपना ही जब कृत्य खुदी के उल्टा है
कहते हैंं फिर ऐसा क्योंकर राम किया
उर्वशियां सब रूठ गईं, मैं अर्जुन बना रहा
उर्वशियां सब रूठ गईं, मैं अर्जुन बना रहा
मेरे अंतर का संवेदन हरदम तना रहा
बार-बार उनने की कोशिश मुझ तक आने की
नेह-पाश में मुझे जकड़कर मुझको पाने की
रहा अभागा बनकर सब दिन, यह सब मना रहा
उर्वशियां सब रूठ गईं ,मैं अर्जुन बना रहा ।
समझ न पाया उन दिन इसका मतलब क्या होता
प्रेम-सरोवर में डूबे तो क्या पाता-खोता
संस्कार भी आड़े आया, साया घना रहा
उर्वशियां सब रूठ गईं, मैं अर्जुन बना रहा ।
ढले उम्र में याद उन्हीं की आती रहती है
वह कुरेद मन मेरे, हाय!सताती रहती है
बासमती हिस्से में सबके, मुझको चना रहा
उर्वशियां सब रूठ गईं, मैं अर्जुन बना रहा ।
.....
कवि - हरिनारायण सिंह 'हरि'
कवि का ईमेल आईडी -
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल करें - editorbejodindia@yahoo.com
बहुत सुंदर रचनायें... बहुत बधाई एवं शुभकामनायें
ReplyDeleteबहुत बढ़िया, केवल कविता पढ़ कर ना छोड़े जल संरक्षण को भी अपने जीवन में अपनाएं। बाढ़ , बारिश के जल की संरक्षित करने नही तो बूँद बूँद को तरसना पड़ेगा��
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