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Sunday, 25 August 2019

एक सच / कवयित्री - सीमा सिंह, मुम्बई विश्वविद्यालय

कविता

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सुनो अब हमारे खिलाफ़ एक और  दुश्मनी मोल ले लो तुम
कागज़ पर उकेरने जा रही हूँ तुम्हारा एक सच
हाँ तुम वही हो
जो हमें हमारे कपड़ों की वजह से नही
बल्कि एक स्त्री  होने के नाते
भरी भीड़ में भी
स्तन से जाँघों तक घूर लेते हो 
हमें भी अपने जैसा एक इंसान नहीं बल्कि
माँस के टुकड़े समझ झपटने की लोभी कोशिश कर लेते हो तुम
ना देखी हमारी उम्र, ना देखी हमारी सीरत,
बस एक मांसल देह मसलने के जुनून में
आँचल के चिथड़े कर जाते हो तुम
बस इतने पर ही खत्म नहीं होती पहचान तुम्हारी
उफ़्फ़..
ज़रा सब्र तो करो

तुम एक बार विशीर्ण कर देते हो हमारे शरीर को
औऱ अदालत की तरह  बना हुआ तुम्हारा ये समाज
ताउम्र हमारी सुनवाई लगाने को
हर पल नए ठहाकों  की महफ़िलें सजवाता है
जिसमें अपने सुकर्मों को ब्यौरा देकर
रौनकें दमका जाते हो तुम

सुनो 
अब एक ग़लतफ़हमी में जी रहे हो तुम
क्योंकि रौंदते हो तुम बस हमारे शरीर के हाड़-मांस को
पोर-पोर छलनी करते हो तुम बस इसके हर एक चाम को

लेकिन
हम में बसे आत्मदेह मनोबल और संबल को विदीर्ण करने के लिए
अब भी सरापा अपाहिज  हो तुम
...

कवयित्री - सीमा सिंह
पता -हिंदी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@yahoo.com


11 comments:

  1. Very true and beautiful poem

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  2. कवयित्री सीमा....
    तुम्हारे लेख वाकई प्रसंसनीय काबिले तारीफ हैं,
    आज कल के जमाने के हिसाब से इस कविता से एक वर्ग के लिए सच्चाई की सिख मिलेगी और समाज को एक नई संदेश मिलनी है, इस सुंदर एक सच कविता के माध्यम से ।

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    1. सही कह रहे हैं।

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    2. वाह सीमा!अत्यंत संवेदनशील लेख

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  3. काबिल- ए- तारीफ सीमा जी

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  4. seema really veracious msg to all

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