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Wednesday, 20 May 2020

डॉ० मधुसूदन साहा रचित कविता संग्रह "मुट्ठी भर मकरंद" की डॉ० विभा माधवी द्वारा समीक्षा

मैं सृजन के द्वार पर अब भी खड़ा हूँ
पुस्तक-समीक्षा

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"नफरतों की राह छोड़ो आज से तुम, 
बेवजह की बात छोड़ो आज से तुम,
काल से भी अधिक घातक गर्व होता-
सोच तानाशाह को आज से तुम।"
समय के साथ प्रासांगिक रहने वाला यह मुक्तक "डॉ० मधुसूदन साहा" की पुस्तक "मुट्ठी भर मकरंद" का एक मकरंद है। बारह प्रकरण में बँटी, तीन सौ साठ मुक्तकों से सजी यह पुस्तक "मुट्ठी भर मकरंद" का सभी मुक्तक अपने आप में बेमिसाल है और समय के साथ हमेशा कदम-ताल मिलाकर चलने वाला है। डॉ० 'साहा' नवगीत के प्रमुख हस्ताक्षर हैं, साथ ही मुक्तक, दोहा, कविता, कहानी, उपन्यास में भी इनकी लेखनी जम कर चली है। 

डॉ० साहा के शब्दों में:- " मुक्तक सचमुच मेरे लिए मुक्ति का संधान ही है। बचपन से आज तक जब भी मुझे दुखों ने आकर घेरा है मेरा अंतर्मन स्वजनों के परायेपन, मित्रों के छलावे और सहकर्मियों के षड्यंत्र से छलनी हुआ है, चार पंक्तियों की छोटे-से छन्द ने मेरे जख्मों को सहलाया हूँ, उन पर चंदन का लेप लगाया है।"

डॉ० साहा अपनी रचनाओं के माध्यम से सबों में  हमेशा प्रेम और सौहार्द बाँटते हैं। आपसी संबंध को घनिष्ठ बनाते हैं। जीवन में हर तरफ बिखरे सौंदर्य से पुस्तक की माणिका सजाते हैं -
"आपसी संबंध की कलियाँ सजाओ,
प्रेम और सौहार्द की गलियाँ सजाओ,
जिंदगी में हर तरफ सौंदर्य बिखरे- 
इस तरह से आज रँगरलियाँ सजाओ।"

 डॉ० 'साहा' का व्यक्तित्व फौलाद का बना है वे वीहड़ों में भी हमेशा बेधड़क चलते रहे हैं। नाग जैसे विषैले लोगों के फुफकार की उन्हें आदत है। वे हमेशा साँप के विवरों के आस-पास ही पले हैं -
"वीहड़ों में बेधड़क हरदम चला हूँ,
हर जगह फौलाद बनकर ही ढला हूँ,
नाग के फुफकार की आदत मुझे है-
पास विवरों के हमेशा से पला हूँ।"

कवि की वेदना को दर्शाता यह मुक्तक:-
"हर जगह मेरा यहाँ विश्वास टूटा,
होंठ तक आकर हमेशा ग्लास फूटा,
कल जिसे मैंने बचाया पतझरों से-
आज उसने ही मधुर मधुमास लूटा।"

जिस पर अटूट विश्वास हो वहीं पर जाकर यदि विश्वास धराशायी हो जाय। जिस कार्य की पूर्णता में कोई संदेह न हो वो कार्य पूर्ण होते-होते अधूरा रह जाय तो होंठ तक आकर ग्लास छूटने के समान है। पतझड़ के मौसम में जिसको संरक्षण दिया गया हो वही आकर मधुमास को लूट ले जाये तो...... क्या हाल होगा?

मनुष्य नियति के हाथों का खिलौना है। नियति जिस तरह नचाती है, मनुष्य कठपुतली की तरह नाचता है। जिंदगी तो सुख-दुख का संगम है। कठिन परिश्रम और संघर्ष से हर मुश्किल के बीच रहते हुए अपने दृढ़ आत्मविश्वास के द्वारा जीवन रूपी नैया की पतवार खेनी पड़ती है जो इत-उत थपेड़े खाते, संघर्षों की लहरों से जूझते हुए आगे बढ़ती है। जिंदगी एक टूटे किनारे की नदी की तरह है समय का बहाव जिधर बहा ले जाय उधर बहना पड़ेगा -
"जो मिला दुख-दर्द वह सहना पड़ेगा,
मुश्किलों के बीच ही रहना पड़ेगा,
जिंदगी टूटे किनारों की नदी है-
जिस तरफ चाहे नियति को बनना पड़ेगा।"

जिंदगी की कठिन संघर्ष से उपजा यह मुक्तक:-
"जिंदगी बस मुश्किलों का सिलसिला है,
हर कदम पर दर्द का टुकड़ा मिला है, 
लाख चाहे आदमी खुद को बचाना-
नियति के आगे किसी का कब चला है?

नियति की मार खाकर टूटकर बिखर जाना हार जाना है। इस जीवन में अश्रु का सैलाब भी है और जीवन के झकोरे की आँधियाँ भी। यदि जीना है तो अंगद की तरह हौसलों का पाँव जमाना पड़ेगा, अन्यथा जीवन रूपी आँधी उड़ा ले जाएगी और मनुष्य का अस्तित्व बिखर जाएगा। तिनका-तिनका होकर उड़ जाएगा। रात चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हो सुबह अवश्य होगा इस विश्वास पर बीत ही जाती है।

"टूट मत जाना नियति की मार खाकर, 
अश्रुपूरित कष्टमय संसार पाकर,
रात जितनी भी बड़ी हो मुश्किलों की-
गुजर जाती सुबह का विश्वास पाकर।"

 डॉ० साहा का यह मुक्तक पढ़कर मुझे बचपन में पढ़ी हुई ये पंक्तियाँ सहसा स्मरण हो आईं:-
"हमें सदा ही बढ़ना है,
गिरकर और फ़िसलकर भी,
जीवन पर्वत पर चढ़ना है।
पहुँचेंगे कब उच्च शिखर पर, 
विघ्न और बाधा से लड़कर,
शिला और शूलों से डरकर,"
उच्च शिखर पर पहुँचने के लिए विघ्न और बाधा से, शिला और शूलों से लड़ना ही पड़ता है। तभी हमें हमारी मंजिल मिलती है।
         
उम्र के इस पड़ाव पर में भी डॉ० साहा सृजन की राह में निरंतर बढ़ते रहे हैं। इनकी रचनाशीलता, सक्रियता सबों पर अमिट छाप छोड़ जाती है -
"उम्र के इस मोड़ तक हरदम लड़ा हूँ,
पर्वतों-सा हर मुसीबत में अड़ा हूँ,
मत कपाटों को अचानक बंद करना-
मैं सृजन के द्वार पर अब भी खड़ा हूँ।

मनुष्य का अपना कर्म ही उसका साथ देता है। हाथ पर हाथ रख कर भाग्य भरोसे बैठने से कुछ नहीं होता है। सिंह चाहे कितना भी बलवान क्यों न हो सोये हुए सिंह के मुँह में हिरण प्रवेश नहीं करता उसी तरह से मनुष्य को अपने कर्मों के द्वारा, अपने परिश्रम एवं लगन से भाग्य निर्मित करना पड़ता है -
"कब तलक तुम अहम में पैठे रहोगे? 
जिंदगी से इस कदर ऐंठे रहोगे?
कुछ करो उद्यम अँधेरा छाँटने का- 
और कब तक भाग्य पर बैठे रहोगे?

बेटियाँ दो घरों की रौनक होती है वह मायका को भी गुलज़ार करती है और ससुराल को भी अपनी खुश्बूओं से महकाती है। उसकी रुनझुन पायल की आवाज घर-आँगन में गूँजती रहती है। ब्याह कर बेटियाँ जब गाँव आती है तो अपने साथ खुशियों भरा संसार लाती है। सपनों की दुनिया अपने पलकों में सजाये उम्मीदों भरा गागर लेकर आती है। पर न जाने क्यों जरा-सा मन के लायक बात नहीं होती है या मनमाफिक दहेज नहीं मिलता है तो ससुराल में उसे ज़बरन जला दिया जाता है। मनुष्य चंद ठीकरों के लिए इतना निर्मम क्यों हो जाता है - 
"ब्याह कर जब बेटियाँ हैं गाँव आतीं, 
साथ खुशियों से भरा संसार लातीं,
पर न जाने सास अपने हाथ से क्यों-
बेरहम बन आग में जबरन जलाती ?

आज हमारी बेटियाँ सिर्फ़ अपने देश में ही नहीं विश्व में अपनी पहचान बना चुकी है। दुनिया का कोई भी क्षेत्र उनकी उपलब्धियों से अछूता नहीं है। आज बेटियाँ अपने सारे अरमान पूरे करती है। लड़कों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में लड़कियाँ चल रही हैं, या ये कहूँ की आज हमारी बेटियाँ बेटों से आगे बढ़ रही है तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। अंतरिक्ष में उड़ाने भर रही हैं हमारी बेटियाँ। साइंस हो या रिसर्च हर क्षेत्र में हमारी बेटियाँ अव्वल रही हैं। राजनीति के क्षेत्र में भी महिलाएँ पुरुषों से अपना लोहा मनवा चुकी हैं। भारत की शान हमारी बेटियों से है -
"विश्व में है देश की पहचान बेटी,  
पूर्ण करती है सभी अरमान बेटी,
'इंदिरा' हो या कि 'प्रतिभा' या 'सुनीता' 
भारतीयों की बढ़ाती शान बेटी।"

आज आये दिन बलात्कार की खबर से अखबार और समाचार चैनल भरे रहते हैं। अपने शहर में हमारी बहु और बेटियाँ सुरक्षित नहीं है। हवस के पुजारियों पर डॉ० साहा का यह कटाक्ष:-
"रोज अपनी हवस फरमाने लगे हैं, 
पास आकर लार टपकाने लगे हैं,
भेडिये अब जंगलों में कहाँ रहते-
शाम होते ही शहर आने लगे हैं।"

कुछ लोग अपने हुनर में बहुत चालाक होते हैं। उनके हर कार्य में अपना फायदा नजर आता है। इनसे जहाँ तक संभव हो दूरियाँ बना कर रखनी चाहिए। ये जिंदगी के सफर में कब डँस लेंगें कुछ पता नहीं -
"ये बड़े चालाक हैं अपने हुनर में,
सिर्फ अपना फायदा रखते नजर में,
दूरिया जितनी रहे हैं उतनी गनीमत-
कौन जाने कब डँसेंगें यह सफर में?"

यदि मनुष्य आपसी सद्भाव और भाईचारे से रहे तो हर चमन की क्यारियाँ खुशबू लुटाएगी और एक खुशनुमा संसार हमारे सामने आएगा -
"अगर सब में आपसी व्यवहार होता,
आदमी से आदमी को प्यार होता,
हर चमन में क्यारियाँ खुशबू लुटातीं-
हर हृदय में इक नया संसार होता।"
           
वक्त का थपेड़ा कब, किसे, किधर उड़ा ले जाए किसी को पता नहीं। भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है कोई नहीं जानता। जब प्रेम और भाईचारा के साथ जब मनुष्यता रहेगी तो निश्चित रूप से स्वर्ग का सौंदर्य धरा पर अवश्य ही उतरेगा -
"वक्त के हाथों कहाँ तक तुम बहोगे? 
कब तलक यूँ अग्नि-पथ में तुम दहोगे?
स्वर्ग का सौंदर्य उतरेगा धरा पर-
साथ मिलकर प्रेम से जब तुम रहोगे।"

जिंदगी जिंदादिली का नाम है। जो जिंदगी के जहर को भी जाम समझ कर पी जाय वो जिंदादिल इंसान है। जिंदगी के हर मुसीबतों और झंझावातों को जो हँस कर झेल जाय जिंदगी उसी के नाम है। जिंदगी के हर गम को भुलाते हुए, अपने आँसुओं को पलकों में छुपाते हुए, अपने होठों पर मुस्कुराहट बनाये रखने की प्रेरणा डॉ० साहा के मुक्तक से लेते हुए निरन्तर आगे बढ़ना है:-
"हैं कहाँ वे लोग जो जीना सिखा दे, 
जहर को हँसकर हमें पीना सिखा दे,
हर जगह ढूँढा ना मिल पाया कहीं भी-
जो जिगर के जख्म को जीना सिखा दे।"
....


कृति:- मुट्ठी भर मकरंद
कृतिकार:- डॉ० मधुसूदन साहा
प्रकाशक:- यतीन्द्र साहित्य सदन
मूल्य:- 150 ₹
पृष्ठ:- 80
समीक्षक - डॉ० विभा माधवी
पता - खगड़िया
समीक्षक का ईमेल अअईडी - bibha.madhawi@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु इस ब्लॉग का ईमेल आईडी - editorbejodindia@gmail.com



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