Friday, 17 July 2020

कोरोना काल में मेरी साहित्यिक यात्रा / कंचन कंठ

आत्म-वृतांत 

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कोरोना सचमुच काल ही तो बन कर आया! इसका आगमन तो वर्ष 2019 ई के दिसंबर में ही हो चुका था; चीन के वुहान सिटी से! पर देशवासियों को इसका कोई भान नहीं था। वे इसे विदेशों में फैला हुआ ही समझ रहे थे।
     
जनवरी में कुछ सुगबुगाहट हुई ‌। विदेशों में इसके प्रकोप के किस्से सामने आने लगे‌।एक साथ अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस,जापान, अस्ट्रेलिया, साउथ कोरिया ,न्यूजीलैंड ,इटली, वियतनाम आदि कई देश इसके चपेट में ही नहीं के, बल्कि विभिन्न रुपमें इसके चतुर्दिक फैलतै जाने के समाचारों से प्रिंट और सेल्यूलाइड की दुनिया पट गई।



लेकिन कबूतर के आंख मूंद लेने से बिल्ली के झपटने का खतरा टल तो नहीं जाता! इसने 2020 ई में मार्च आते आते भयंकर रुप धारण कर लिया।जब तक विदेशों में इसका प्रलयंकारी रुप दिख रहा था, हमने इसे भयंकर तो माना, पर समुचित कदम नहीं उठाए।



बाद में जो कुछ हुआ, वह आननफानन में लिए गए कदम थे। ये सही है कि कोरोना का यूं अटैक पूरे विश्व पर पहली बार है। इसके कुछ अलग - अलग से रुप और प्रकार से हम विगत कुछ दिनों में परिचित हुए। चूंकि यह एक कृत्रिम वायरस है, जैसा कि कहा जा रहा है,  इसलिए यह हर तरहक की जलवायु, तापमान और स्थान पर पनपा ही नहीं बल्कि फैला और फलफूल रहा है।


ऐसे में सरकार ने लाकडाउन का फैसला लिया,जो अभूतपूर्व था। पूरे देशमें लाकडाउन होने से समय और रसोई के अलावा सब ठप्प पड़ गए। ये शब्द #लाकडाउन पहिले कभी किसी ने सुना नहीं था, लोगबाग में लाकअप प्रचलित था कि गलत कार्य करने पर पुलिस लाकअप में डाल देगी!


खैर, अब बंद तो बंद! ह र तरफ़ बंद , स्कूलबंद, कालेज बंद, यातायात के साधना बंद, मंदिर बंद, मस्जिद, गुरु द्वारे,चर्च सब बंद! शादी समारोह बंद!


मात्र बैंक, पुलिस,अस्पताल,पोस्ट आफ़िस आदि खुले रहे जिसमें बैंकों पर सरकार द्वारा बांटी गई सहायता राशि के भुगतानों का कार्य भी मत्थे आन पड़ा, उनका सब कार्य यूं सामान्य दिनों की तरह चलाने का काफी दवाब बैंककर्मियों ने झेला और झेल रहे और असमय काल के गावँ में समाये जा रहे संक्रमित होकर। यही हाल रेलकर्मियों और चिकित्सा, पुलिस बल के क्षेत्र से जुड़े लोगों का भी है।


इसमें निजीक्षेत्र के कामगारों को काफी मुसीबतें झेलनी पड़ीं। कारखाने,मिल, आफिस,होटल, बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन आदि के अचानक बंद होने से उनका काम-धंधा छिन गया! मालिकों ने पगार दिये ना दिये या आधा पगार दिया, जिससे उनमें भुखमरी की हालत हो गई।


एक तो नौकरी नहीं ऊपर से ये भयंकर बीमारी! वो करें तो क्या करें! ऐसे में तो सबको अपना वतन, छूटे हुए परिजन ही याद आते हैं। तिसपर कुछ राज्य सरकारों ने परिवहन का झूठा आश्वासन देकर उनकी भीड़ इकट्ठा कर कोई जिम्मेदारी नहीं ली।

तब भूख और भय के मारे हमारे मजदूर भाई बहिनों ने पैदल ही गांव की ओर चलना शुरू किया,जो और घातक सिद्ध हुआ! आखिर हजारों किलोमीटर पैदल कड़कती धूप में चलना उस पर पुलिस और प्रशासन की निर्ममता!
ओह!कितने कितने दुख झेले उन मजदूरों और उनके नौनिहालों ने! कितने हृदयविदारक दृश्य,कितनी मानवता को शर्मसार करने वाली घटनाएं सामने आईं!आए दिन कोरोना की खबरों के अलावा इस तरह की घटनाएं मन-मस्तिष्क को झकझोरती रहीं।


खैर इस कोरोना काल में हम महिलाओं के लिए चतुर्दिक समस्याएं आन पड़ीं! एक तो जिनके परिवारजन पढ़ाई, नौकरी आदि के सिलसिले में दूर दूर हैं, वो तरह तरह की आशंकाओं में घिरी हैं। जिनके सब परिवारजन पास में हैं,मुश्किलें उनकी भी कम नहीं! बाहर से घर आए, सभी बच्चे, बड़ों की खाने पीने की फरमाइशें अलग अलग,घर में सहायता -सेवा के सभी लोग लाकडाउन की वजह से अनुपस्थित! तो पूरे घर की जिम्मेदारी महिलाओं के नाज़ुक कंधों पर। तिस पर तरह -तरह की बीमारियां, जो पहले आराम से मैनेज हो जाती थीं, अभी उनसे निपटना बड़ा ही मुश्किल हो गया है। कोरोना के कारण हस्पताल तक जाना मुहाल है।



लेकिन इस के कारण लोगों को परिवारों के संग मिलकर रहने का मौका लगा। जो अतिव्यस्तता के कारण आपस में बैठना, बातचीत करना, भूल गए थे; अब संग मिल ठहाके लगा रहे हैं। लोगों में नजदीकियां बढ़ीं आपस में प्रेमभाव में वृद्धि हुई।कई परिवारों ने समझ से काम लेकर जिम्मेदारियों को बांटा और सब हंसी-खुशी समय बिता रहे। पर कइयों को इन सबकी आदत ना होने की वजह से मुश्किलें खड़ी हुई हैं।

समाज में इस बीमारी के इंफेक्शन के डर की वजह से तरह तरह की समस्याएं हो रहीं हैं। यह बीमारी खतरनाक तो है, पर लोग बच भी रहे हैं।



जानलेवा उनके लिए है जो पहले से अन्य बीमारियों यथा; मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदयरोग, कैंसर आदि व्याधियों से पीड़ित हैं ; अर्थात् जिनके शरीर में इम्यूनिटी पहले से ही कम है और आज विश्व में पचास के ऊपर तो क्या नीचे की उम्र वाले भी इनसे पीड़ित हैं।

जो कोरोना से  बीमार पड़ते हैं; वो कोरोंन्टाइन करने से कुछ सावधानियां और पंद्रह दिनों के आइसोलेशन से ठीक भी जाते हैं; तो भी पास-पड़ोसके लोग आशंका से भयभीत उन्हें अपने घरों में रहने का विरोध करते हैं। उन्हें तरह तरह से प्रताड़ित किया जाता है कि वह उस स्थान को छोड़ दें।

कोरोना ने परिवार के परिवार खत्म कर डाले हैं।

कोई भी काम करना ; यहां तक कि सब्जी खरीदना तक एक किला फतह करने जैसा कार्य लगता है, सावधानी के ढेर सारे  मानकों का प्रयोग करना होता है।

आनलाइन शापिंग का प्रचलन बढ़ा तो है पर उसमें भी ढेर सारी परेशानियां हैं।
इस समय में सारे निजी अस्पताल और डाक्टरों ने सब क्लीनिक आदि बंद कर रखा है  तो आम जनता का भय दुगुना चौगुना बढ़ गया है। हर वक्त लोग इस सोच में हैं कि कोरोना तो छोड़ो, कोई अन्य बीमारी भी हुई तो कहां जाएं,क्या करें? हम डाक्टर को भगवान माननेवाले लोग अस्पतालों की व्यापारिक बुद्धि के शिकार हो रहे हैं। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद इलाज इतना मंहगा है और उसके बावजूद तमाम तरह की मुश्किलें हैं। 


अब आएं मुद्दे की बात पर! कोरोनाकाल में हमारा साहित्यिक सफर! काफ़ी अच्छा रहा है ये सफ़र! अब जब कि सब जन घर में हैं, कहीं आना जाना नहीं, कोई नौकर-चाकर नहीं। पूरे घर के काम,सब की अलग अलग फरमाइशों से चिड़चिड़े होते मन को साहित्य के विभिन्न आयामों से बड़ी राहत मिली!


साहित्य एक मरहम तो हमेशा से रहा है पर तकनीक का संग लेकर तो उसमें एक अलग ही निखार आया है।इससे इसका क्षेत्र और विस्तृत हुआ। आज घर में बैठे बैठे लोग उन्हें भी देख-समझ पा रहे हैं जो पहले केवल मंच पर ही दिख पड़ते थे।

अब ऐसे समय में हमने अपने मन में उमड़ आए भावों को जो समय मिलता; उसमें फटाफट शब्द देने की कोशिश की!  अभी मिलना - मिलाना तो बंद है, तो साहित्यिक गोष्ठियों, सम्मेलनों का हो पाना असंभव! फिर इसके लिए आभासी मिलन रखे गए;जो अभूतपूर्व कदम था!


इसमें जमे जमाए साहित्यकारों का तो शिरकत करना निश्चित था ही, नवांकुरों को भी अपनी कविताएं, कहानियां लाइव आकर दर्शकों के सामने पढ़ने का मौका कई बार और कई जगहों पर मिला। वरना कब किसी ने सोचा था कि बड़े-बड़े नामों के साथ उन्हें भी लोग सुनेंगे, देखेंगे और समझेंगे।कई लोगों को अंतर्जाल की अनुपलब्धता से क्षोभ भी हुआ,लोग उन्हें सुन नहीं पाए,वो अपनी बात रख नहीं पाए!



इस समय में जो लाइव सेशन रखे गए मुखपोथी पर ; विभिन्न साहित्यिक पन्नों पर उनमें मुझे भी भाग लेने का अवसर मिला; इस तरह का में मेरा पहिला प्रयास था। इससे मुझे अपने मे भावों के अनुरुप उतार चढ़ाव और संप्रेषणीयता पर अपनी खूबी खामियों का पता चला।

बीहनिकथा मैथिली साहित्य में एक नई विधा है जिसमें अधिकतम सौ शब्दों में अपनी कथा यूं कहनी/लिखनी होती है कि मंतव्य स्पष्ट हो जाए। इसमें मैने कई कथाएं पोस्ट कीं। 'खीस', 'जिज्ञासा'  आदि लिखी  हैं ‌। कई अन्य समूह हैं जिनमें अपनी कथाएं भेजीं; जिसमें दो में विजेता भी हुई। खैर,वो कोई बड़ी बात नहीं ; भाग लेना ही महत्वपूर्ण था। कुछ कविताएं भी विभिन्न विषयों पर लिखीं। जो मुझ स्वयं के लिए नितांत नव अनुभव था।


एक समूह में मैने लाइव कविता पाठ भी किया,वो एक  अलग अनुभव रहा , कुछ ऐसा ही था जैसे मंच पर ही हों और समय समय पर आ रहे लोगों के कमेंट्स का यथोचित सम्मान करते हुए अपनी समझ से जबाब देना बड़ा ही उत्साहवर्धक था कि लोग आपको सुन रहे हैं, उन्हें आपकी रचनाएं बांधे हुए है।

एकाध समूहों ने अपना एडमिन भी बनाया,ये मेरे लिए एक नई और सम्मानजनक बात थी।उसमें साप्ताहिक रुप से विमर्श के लिए विचार रखना और फ़िर उस विचार पर सदस्योंके अनुभवों का विश्लेषण करना नितांत आनन्ददायी था। फ़िर अलग अलग क्षेत्र की विदूषियों को लाइव के लिए आमंत्रित कर उनके संघर्ष, उनकी जीवनयात्रा,  महिलाके रुपमें उनकी कठिनाइयां, उनकी सफलताएं जानकार बड़ा अच्छा लगा।

यह भी पता चला कि कैसे एक महिला अपने सम्मान और बच्चे की सही परवरिश की खातिर अपने बददिमाग पति को छोड़कर बिना कुछ गलत बात अपने बच्चे के मनमें डाले उसकी शानदार परवरिश करती है और सास ससुर के प्रति फ़िर भी अपने कर्तव्य को निभाती है।


बिहार की प्रथम महिला एडीजीपी का लाइव किया हमने और वो भी बिल्कुल नौसिखिये की तरह ही घबराई हुई थीं लाइव सेशन में और अपने जीवनके बारेमें बताते हुए रो पड़ीं; कि कैसे बहन को खोने के बाद माता पिता को उस 


यूं तो साहित्य की दुनिया, विज्ञान को इतना महत्व नहीं देती उसे नीरस कहती हैं ,पर ये विज्ञान ही है जिसने आज साहित्य को रसहीन होने से बचाया, तकनीक का साथ लेकर साहित्य ने बहुतों को मानसिक अवसाद से उबारा।मुखपोथी (फेसबुक) के अलग-अलग पन्नों पर अपनी काबिलियत दिखाने का और तुरंत मिलते रेस्पांस से अपनी विद्वता को भी जांचने-परखने-निखारने का अद्भुत अवसर सिद्ध हुआ है।

कोरोना ने जितनी नृशंसता से मानवजाति का संहार किया हो, उससे कुछ अच्छी बातें भी समझ में आईं हैं।विकट परिस्थितियों से जुझने में साहित्य हमारा संबल बनकर उभरा है। नई नई विभिन्न प्रतिभाओं को उभरने का अवसर मिला है।


ये मेरे लिए नितांत नया अनुभव था। चूंकि अभी कोई गोष्ठी या सम्मेलन तो संभव नहीं है। तो इस समय साहित्यक लोगों को उनका मनोबल और रचनाधर्मिता बनाये रखने में तकनीकी ने अभूतपूर्व साथ दिया।



फिर भी अब बहुत हुआ, जल्द कोई वैक्सीन मिले या कोई और इलाज कि हम इससे उबर पाएं! हांलांकि अभी इसकी कोई उम्मीद नहीं दिखती!पर उम्मीद पे दुनिया क़ायम है!
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लेखिका - कंचन कंठ 
लेखिका का ईमेल आईडी - kanchank1092@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु इस ब्लॉग का ईमेल आईडी - editorbejodindia@gmail.com

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