"रोज़ नयी इक चाल सियासी / प्रश्न हुआ रोटी का बासी"
विज्ञान व्रत जी की पुस्तक "मैं जहाँ हूँ" से गुज़रते हुए ऐसा लगता है कि उनकी ग़ज़लों में उनके मन की आंतरिक वेदना और छटपटाहट तथा स्वयम् से की हुई बातचीत है जिसने ग़ज़ल का रूप अख़्तियार कर लिया है। जिस तरह "महादेवी वर्मा" जी की अधिकतर रचनाएँ उनके अज्ञात - अगोचर प्रियतम को समर्पित थीं, उसी तरह इनकी ग़ज़लें भी किन्हीं 'ख़ास' को समर्पित हैं। इनकी अंतरात्मा की उस 'ख़ास' से बातचीत ही ग़ज़लों के स्वरूप में ढलकर और पुस्तकाकार होकर पाठकों के हाथों में आई है। पाठक इनकी ग़ज़लों को पढ़ते हुए इनके मन की पीड़ा से व्यथित भी होते हैं और इनकी वेदना से साझेदारी भी करते हैं। उस 'ख़ास' से न मिल पाने की पीड़ा से विज्ञान व्रत दुखी भी होते हैं और मिलन की कल्पना से प्रफुल्लित भी ! छोटी बहर में बड़ी से बड़ी बात बहुत सहजता से कह देना विज्ञान व्रत जी की ख़ासियत है। इनकी ग़ज़लें सीधे अंतरात्मा से निकल कर पाठकों के मन की गहराइयों को छूती हैं। आम बोल-चाल की भाषा को ग़ज़ल के पैकर में ढाल देना विज्ञान व्रत जी की विशेषता है। इनके कुछ अश्आर देखते हैं:-
"बात कराओ मम्मी से
हाँ, कह दो मैं फ़ोन पे हूँ
हाँ जी! सब ठीक तो है ना!
बस मन था कुछ बात करूँ
काम बचा है थोड़ा सा
बस आने ही वाला हूँ "
राम का वनवास तो चौदह वर्ष का ही था परंतु सीता? सीता तो आजीवन वन में रहीं ! अग्निपरीक्षा देने के बाद भी उसे महलों में जगह नहीं मिली!
"राम अयोध्या लौट गए
सीता को बनवास रहा"
कुछ ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़लों के मतले देखते हैं ---
"टूट कर भी सच कहा
आइना है आइना"
जी हाँ ! आइना आइना ही होता है चाहे वह कितने टुकड़ों में ही क्यों न बँट जाये वो सच ही दिखलाता है !
जिंदगी कभी सीधी राह नहीं चलती। वह तो हर किसी को अपनी उँगलियों के इशारों पर कठपुतली की तरह नचाती रहती है !
"ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा
आज तक उलझा हुआ"
ग़ज़लकार की अनुभूति के कुछ अन्तरंग पल इन अश्आर में देखने योग्य हैं ---
"क्या कहना उस लम्हे का
जब वो पहली बार मिला
जब से उसका साथ मिला
क्या मैं अपने साथ रहा
बस उसको महसूस किया
मुझ को ये ही काम जँचा"
विज्ञान व्रत जी के सारे सर्जन का मूल ग़ज़ल के इन अश्आर में मिलता है --
"आप को जब से मिला हूँ
बस तभी से लापता हूँ
आज तक उलझा हुआ हूँ
एक ऐसा फ़लसफ़ा हूँ
हादसों से क्या डरूँगा
हादसों से ही बना हूँ "
इसी 'लापता अवस्था' में विज्ञान व्रत जी एक के बाद एक ग़ज़ल की कई पुस्तकों का सर्जन कर चुके हैं।
ये ज़िंदगी भी एक पहेली की तरह है। कब रेत की दीवार की तरह ढह जाए किसी को कुछ पता नहीं। ज़िंदगी में बड़ी-बड़ी आँधियाँ आती रहती हैं जो ज़िंदगी के मीनार की जड़ें हिला जाएँ !
"रेत की दीवार जैसी ज़िंदगी
मौत के आसार जैसी ज़िंदगी
आँधियों का जोर तो देखो ज़रा
हिल गयी मीनार जैसी ज़िंदगी"
बेटियों से हर घर की रौनक़ और हर आँगन की ख़ुशियाँ हैं। बेटियाँ ही जीवन का श्रृंगार हैं तथा बेटियों से ही घर की बया गुलज़ार है ! माता-पिता की धड़कनें हैं बेटियाँ !
"जीवन का श्रृंगार है बेटी
इक सपना साकार है बेटी
भौरों की गुंजार है बेटी
कलियों का अभिसार है बेटी"
जीवन के यथार्थ को दर्शाते ये अश्आर ---
जो झरेगा
वो मिटेगा
जो मिटेगा
वो उगेगा
ये जिंदगी समुद्र में एक जलयान की तरह है जिसे न जाने कब तूफ़ान का कौन सा थपेड़ा सहन करना पड़ जाए !
"सिंधु में जलयान भी है
साथ ही तूफ़ान भी है"
आज़ादी के बाद से ही रोटी एक अहम प्रश्न बना हुआ है। जिस मुद्दे को लेकर हमेशा नई-नई सियासी चालें चली जाती रहीं, रही हैं और रहेंगी वह मुद्दा हमेशा ज़िन्दा रहेगा वोट बैंक की ख़ातिर !
"रोज़ नयी इक चाल सियासी
प्रश्न हुआ रोटी का बासी"
ग़ज़लों की दुनिया में खोये हुए विज्ञान व्रत जी ख़ुद को ग़ज़लों में ढूँढ़ रहे हैं --
" सामने बैठा हुआ हूँ
और खुद को ढूँढ़ता हूँ "
और अंत में इनकी ग़ज़लों की मायावी दुनिया में पाठकों पर कहीं जादूटोना न हो जाए इसलिए सावधान ! कहीं पाठक पुस्तक की ग़ज़लों की ख़ुशबू से मदहोश न हो जाएँ ! इसलिए आदरणीय विज्ञान व्रत जी की ग़ज़लों से गुज़रते हुए थोड़ा सावधान और सतर्क रहें !
"मुझ पर कर दो जादू-टोना
एक नज़र ऐसे देखो ना
बादल हो तुम या ख़ुशबू हो
बरसो खुलकर या बिखरो ना"
कृति:- " मैं जहाँ हूँ "
कृतिकार:- विज्ञान व्रत
समीक्षक:- डॉ० विभा माधवी
प्रकाशक:- अयन प्रकाशन
संस्करण-2015
मूल्य:- 220 ₹, द्वितीय संस्करण
पृष्ठ:- 108
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समीक्षक - डॉ० विभा माधवी
समीक्षक का ईमेल - bibha.madhawi@gmail.com
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