कविता
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समय की सड़क पर
चलते चलते घिस चुके हैं
उसके पैरों के तलवे
हताशा उसके चेहरे पर
सूख चुके आँसुओं के बीच
कहीं गहरे पैठ कर गयी है
बसंत का एक भी
पीला फूल उसके जीवन में
नहीं खिला
दुःख पीले ज़र्द पत्तों की भांति
बिना पतझड़ के भी
झरते रहते हृदय के
आँगन में
नदी में गिरी
उसकी कुल्हाड़ी मात्र
लोहा भर नहीं थी
उसकी जीवन और मृत्यु के बीच की
एक मात्र कड़ी थी
प्रतीक्षा की देहरी पर
बैठे हुए वर्षों बीत गये उसे
न नदी का पानी घटा
न ही कोई देवी अथवा देवता
हाथ में कुल्हाड़ी पकड़े
बाहर आया अब तक
आम आदमी की
कुल्हाड़ी गिरने का दुःख
देवताओं को
समझ नहीं आया कभी
इसके लिए उन्हें मनुष्य होना था.
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