Thursday, 7 February 2019

व्यंग्य - डिजिटल व्रत / कंचन अरविन्द

 अपुन तो निश्चित कियेला था तो,छोड़नाच था
देखिये क्या हुआ जब मोबाइल के बिना रहना पड़ा एक गृहिणी को वो भी पूरे एक माह 



दशहरे के समय में इस बार अपने गांव घर जाने का अवसर मिला। बहुत दिनों के बाद दशहरे में गई थी तो बहुत अच्छा लग रहा था। सारा माहौल उत्सव और भक्ति में लीन लग रहा था। कहीं कोई दस दिन फलाहार कर रहा है। कहीं कोई हवन यज्ञ में व्यस्त हैं। हर तरफ मेला , बड़े-बड़े पांडाल ,बड़ी बड़ी मुर्तियां,बड़े बड़े मेलों का आयोजन चल रहा था। बड़ी धूमधाम से चल रहे इस पर्व को देखकर मुझे लगा कि मुझे भी कुछ तो करना चाहिए। पर मैं ठहरी अधम प्रवृत्ति की प्राणी।

व्रत उपवास,पुजा पाठ से बहुत ज्यादा लगाव नहीं। खुद पर भरोसा भी नहीं कि व्रत शुरू करूं,पर कहीं अर्द्ध व्रती ही न रह जाऊं। व्रत कहीं बीच में ही न छोड़ना पड़े।पर इच्छा बलवती थी कि कुछ तो करुंगी, मां भगवती की आराधना करने के लिए। हर तरह से चिंतन मनन करती रही क्या करूं करता नहीं। दिन भी निकलते जा रहे थे।फिर एक दिन यकायक याद आया कि जो चीज आपको बहुत प्यारा हो,ईश्वर की सेवा में उसका परित्याग करके भी उन्हें प्रसन्न किया जा सकता है। मेरी सासू मां ने भी पुरी में बेर और तिरुपति बालाजी के आगे चाय का परित्याग किया था। तो काफी सोच-विचार के बाद,दिल पर सौ मन वज़नी पत्थर रख कर फैसला किया कि "मैं महीने भर के लिए मोबाइल फोन का परित्याग करूं"।

सतयुग होता तो शायद ज़मीं थर्रा जाती, आसमान से पुष्प वर्षा होने लगती,क्योंकि मोबाइल फोन के बिना क्षण भर भी रहने की कल्पना भी असहनीय हो गया है। खैर,ये तो ठहरा कलयुग तो भाई ऐसा कुछ नहीं हुआ, पर अपुन तो निश्चित कियेला था तो,छोड़नाच था। शुरुआती दिनों में तो घूमकर आए तो ,सब व्यवस्थित करने में चले गए।

दस दिनों के बाद तो अपना प्रिय मोबाइल फोन रह रह कर याद आने लगा। कभी लगता अरे व्हाट्स अप पर गुड मॉर्निंग मैसेजेस आए होंगे, कभी लगता अरे कोई मजेदार जोक्स आए होंगे। कभी युट्यूब पर खाने की रेसिपी देखनी होती,कभी सिलाई कढ़ाई के पैटर्न याद आते।ओह हां, फेसबुक तो और तड़पा रहा था - अरे भाई ट्रिप के फोटोज डालती,तो कितने लाइक्स और कमेंट्स मिलते। कभी इंटरनेट से ट्रेन टिकट्स बुक करूं तो कभी सिनेमा टिकट्स के लिए मोबाइल की आवश्यकता आन पड़ती। कभी न न्युज फ्लैश याद आते- पर मैं ठहरी धुन की पक्की,सोच लिया तो सोच लिया। नहीं यूज़ करने का तो नहीं ही करना था। दिन-दिन मैं मां दुर्गा पर ध्यान लगा कर इन बाधाओं को पार करती गई और इस तरह पूरा महीना खत्म हुआ ।

मां प्रसन्न हुई होंगी ऐसा मन ही मन उन्हें धन्यवाद ज्ञापन करते हुए मैंने अपना व्रत को समाप्त किया और मोबाइल फोन को फिर से हाथों में लिया तो यूं लगा कि जीवन दायिनी संजीवनी बूटी मिल गई।पर सच कहूं तो हकीकत में मैं घुमने के क्रम में अपना मोबाइल फोन दीदी के घर छोड़ आई थी जो मुझे महीने भर बाद मिल पाया।
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आलेख -  कंचन अरविन्द
छायाचित्र सौजन्य - कंचन
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल -  editorbejodindia@yahoo.com                                                                                                                                                                                                     
श्रीमती कंचन अपने पति श्री अरविन्द कंठ के साथ 




4 comments:

  1. अच्छी लगी ,आपकी लघु कथा।भविष्य में और भी पढ़ने को मिलेगें,आशा करता हूं।

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  2. वाह ! बहुत सुन्दर

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  3. वाह ! बहुत सुन्दर

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  4. आज के दौर की बड़ी समस्या का अति सुंदर चित्रण

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