दो कविताएँ - कुन्दन आनन्द
कविता-1
क्या करे हम भला आप ही बोलिए
चुप न रहिए जी अपनी जुबाँ खोलिए
आप ने कल कहा तू न चल भीड़ में
आप ही आज क्यों भीड़ में हो लिए?
उनको अपनो में भी जब न अपना मिला
बंद कमरों में ही खूब वो रो लिए
धर्म हमने निभाया है मजदूर सा
पीठ पर जो पड़ा सबको हम ढ़ो लिए
हमको काँटों ने पाला पिता की तरह
मेरे काँटों को फूलों से मत तौलिए.
कविता-2
जिस दिन से श्मशान से होकर आया है
समझ गया है दुनिया बस मोह-माया है
वो मेरी भी और तेरी भी है अपनी
मौत के लिए कोई नहीं पराया है
दाने दाने की कीमत उससे पूछो
कई रात बस भूख को जिसने खाया है
खुशनसीबों में लिखो तुम हमको भी
हमने भी तो माता पिता को पाया है
इस शहर में भी खुद में ज़िंदा हूूँ क्योंकि
.....
कवि- कुन्दन आनन्द
कवि का ईमेल- anand22021994@gmail.com
कवि-परिचय: कुन्दन आनन्द अत्यंत सक्रिय युवा साहित्यकर्मी हैं और पटना में आयोजित अधिकांश कवि-गोष्ठियों में इन्हें आमंत्रित किया जाता है और ये भाग भी लेते हैं. पेशे से शिक्षक कुन्दन बिलकुल सादगी को पसंद करते हैं विचारों और व्यवहार में भी. इनकी कविताओं में एक वैराग्य का भाव झलकता है और समाज के विरोधाभास पर भी इनकी पैनी नजर है. जीवन अगर एक नाटक है तो ये उसमें मात्र अभिनेता बनने की बजाय एक द्रष्टा की भाँति उसे देखकर उसके प्रति एक दृष्टिकोण विकसित करने में अधिक रूचि रखते हैं. अपने संस्कार, त्याग की भावना और आस्था को लिए यह कवि देश में एक सकारत्मक विराट परिवर्तन की आकांक्षा रखता है. इसमें कोई संदेह नहीं कि भविष्य में ये एक यशस्वी प्राढ़ कवि बन पाएंगे.
No comments:
Post a Comment
Note: only a member of this blog may post a comment.