Wednesday 1 May 2019

चेन्नई में रह रहे हिन्दी कवि ईश्वर करुण की रचनाधर्मिता / कुमार सुशान्त

किन्तु शहर में किराये का मेरा घर /  इंतजार करता है /  मेरे खाली करने का !

कवि- ईश्वर करुण

यह बात सच है कि किसी भी लेखक की रचनाएं उसके समय का सच होती है क्योंकि लेखक जो समाज में देखता है उसे ही लिखता है। कोई भी लेखक अपने समाज से कटकर नहीं जी सकतायही बात ईश्वर करुण पर भी लागू होती है। ईश्वर करुण की कविताएं अपने समय का बयान है। उनकी कविताएं परिस्थितियों के दबाव से उत्पन्न हुई है । ये परिस्थितियाँ नई कविता और उसके बाद की है। नई कविता और उसके बाद के दशकों में बहुत ही ज्यादा सामाजिक परिवर्तन देखने को मिलता है। इसी कारण उनकी कविताओं में समसामयिकता देखने को मिलती है।  यह समसामयिकता ही उनकी संवेदनशीलता का प्रमाण है। उदाहरण के तौर पर जब सुनामी त्रासदी आई तो ईश्वर करुण का कवि भी इस घटना से प्रभावित हुए बिना न रह सका और उन्होंने सात दिनों में सात कविताएं लिख डाली। सुनामी से हुए जानमाल का नुकसान उन्हें अन्दर से हिला कर रख दिया। सुनामी पर २६ दिसंबर, २००५ को प्रातः ६:३० से ८:४० के बीच उनकी कलम से निकली पहली कविता का कुछ अंश देखें और जान-माल का जो नुकसान हुआ उसका अंदाजा लगाएं,

             "धरती हिली, समुद्र हिला,
               लहरें दौड़ पड़ीं किनारों को तोड़
               लील गयीं जो कुछ भी सुबह-सुबह मिला।
               धरती पर रह गये
               समुद्र के खिलाफ शिकवे ही शिकवे,
               गिला ही गिला..."१

सुनामी के बाद ईश्वर करुण को विश्वास नहीं हो रहा था कि सागर ने इतना बड़ा कहर बरपाया है। वे विस्मित थे। उन्होंने सागर को पाँचवी कविता (३० दिसम्बर, ०५ प्रातःकाल लिखी गयी। ) में उलाहना देते हुए लिखा है,

               " अजीब है सागर !
                  खाने के पहले डकारें लिये
                  और
                  पेट से फाजिल 'खाकर' भी शान्त !"२

 ईश्वर करुण की कविताओं का 'रेंज' बहुत बड़ा है । यही 'रेंज' उन्हें बड़ा कवि बनाता है। उन्होंने विविध विषयों पर कविताएं लिखी हैं। उनकी दृष्टि बहुत ही पैनी है। ऐसा लगता है मानो उनकी नजर से किसी भी विषय का बच पाना नामुमकिन है। ईश्वर करुण ने एक तरफ माँ, पापा, बेटी जैसे पारिवारिक रिश्तों पर कविताएं लिखी तो दूसरी तरफ सिल्क स्मिता और बेनज़ीर जैसी महिलाओं पर भी कलम चलाई। तीसरी तरफ उनकी नजर स्त्री विमर्श, नया वर्ष, भूख, राजनीति, कल्पना, विरह, चिन्ता और रात जैसे विषयों पर गई तो चौथी तरफ उन्होंने मौलिश्री, टहनी, पहाड़, नीलगिरी की बारिश जैसी प्रकृति से जुड़ी कविताएं भी लिखी। उनकी नजर से जंगल का फूल भी नहीं बच पाया । उन्होंने ऊटी के जंगल के फूलों पर भी कविता लिखी है। इस विषय पर लिखी कविता की कुछ पंक्तियां देखिए,

        "ऊटी जंगल के फूल
         उन्हें निर्जन में खिला देख
         हमें उनकी एकान्तिका पर
         आश्चर्य होता है
         हाय रे, मैं मूरख !
         यही तो उनकी दुनिया है
         हमें आश्चर्य है कि वे मेरी दुनिया में क्यों नहीं ?
         पर यह तो उनकी मर्जी
         मेरे आश्चर्य पर वे और खिल जाते हैं।
         उनकी मुस्कुराहट का दायरा बढ़ जाता है।"३

ईश्वर करुण बहुत ही संवेदनशील कवि हैं। संवेदनशीलता उनकी रचना धर्मिता को प्रगाढ़ बनाती है। उन्होंने जो भी अनुभूत किया उसे अपनी संवेदना के माध्यम से कविता के रूप में व्यक्त किया । अपनी संवेदना के बल पर कवि मध्यवर्ग से ही नहीं बल्कि निम्नवर्ग से भी जुड़ता है। 'कोयम्बत्तूर पहचान गया' कविता में उन्होंने लिखा है,
         "फुटपाथ पर शाम को खाते समय
         'परौठा' खाने का स्वाद
         थप्पड़ के स्वाद में क्यों बदल गया !
         वह थप्पड़ तो भूख से पीड़ित
         उस भिखारी के गाल पर पड़ा था !"४

 इस कविता में कवि निम्न वर्ग के भिखारियों से जुड़ते हैं और उनके दुख को अपना दुख समझते हैं।दूसरे के दुख को अपना दुख वही मान सकता है जो संवेदनशील हो।

ईश्वर करुण की संवेदनशीलता का एक और उदाहरण 'तर्पण' कविता में देखने को मिलता है जो एक बाप की मजबूरी का बयान है। इकलौता बेटा अमेरिकी स्वर्ग में पत्नी के साथ रहता है। बाप भारत में अकेला रहने को विवश है । घर में कोई नहीं है । बाप के भी माँ और पिता स्वर्गीय हो चुके हैं। बेटे और बहू से मिलने के लिए बाप घर में अकेले  छटपटाता है । अकेलापन उसे काटने को दौड़ता है लेकिन विवशता ऐसी कि उसे अकेले ही रहना है,

        "बेचारा  बाप
         ना माँ-बाप के स्वर्ग में जा सकता है,ना बेटे के स्वर्ग में
         ना माँ-बाप स्वर्ग से उसके पास आते हैं
         और न बेटा ही अमेरिकी स्वर्ग की परिधि लाँघता है
         साल में एक बार वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए
         बेटे से बात कर लेता है
         माँ-बाप को तर्पण देने समय !"५

यह हमारे आधुनिक जीवन की विडंबना है। लोग बूढ़े माँ-बाप को अकेले तड़पने के लिए छोड़ देते हैं और अपने सुख में मस्त हो जाते हैं । ऐसे लोग भूल जाते हैं कि कभी वे भी बूढ़े होंगे।

ईश्वर करुण की रचनाधर्मिता पर विचार करने से हम पाते हैं कि उनकी कविताओं में गत्यात्मकता और नव्यता है । कविता में प्रकृति का चित्रण हमेशा से ही होता रहा है लेकिन आज जब पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हो रही है। प्रकृति को बचाने की चेष्टा की जा रही है। लोग 'ग्लोबल वार्मिंग' का शिकार हो रहे हैं । धरती का तापमान दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। ऐसे विपरीत समय में प्रकृति के प्रति दुनिया को सचेत करने की जरूरत है। संवेदनशील कवि ईश्वर करुण की कई कविताओं में प्रकृति के प्रति चिंता व्यक्त की गयी है । उदाहरण के तौर पर 'मौलिश्री खड़ा है ?' कविता की कुछ पंक्तियों को देखिये,

               "मौलिश्री जिंदा हैं
                क्योंकि यह स्वयं मर भी नहीं सकता
                कंक्रीटों की अदालत से उसे मिला है मृत्यु दंड !
                उसे प्रतीक्षा करनी है जल्लाद की !
                जा आने ही वाला है
                नगर निग द्वारा जारी
                'मृत्यु वारंटलेकर !"

पेड़ों की बेतहाशा कटाई से खतरा केवल मनुष्य जाति पर ही नहीं आया है बल्कि पशु-पक्षियों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है। कई पशु-पक्षी विलुप्त होने के कगार पर खड़े हैं। ईश्वर करुण के भीतर का कवि इस खतरे के प्रति सचेत है, नहीं तो 'आभार वनचिड़ैया' जैसी सुंदर कविता वे नहीं लिख पाते । इस कविता में वे वनचिड़ैया को दर्शन देने के लिए आभार व्यक्त करते हुए कहते हैं,

             "आभारी हूँ उस वनचिड़ैया का
               जो मेरी कल्पना की सोनचिड़ैया को
               चुनौती दे गई है-
               मेरे सौंदर्य दृष्टि में बहुत कुछ जोड़ कर !"७

कवि को इस कविता में वनचिड़ैया का सौंदर्य सोनचिड़ैया से ज्यादा अच्छा लगता है । कवि को डर है कि आने वाले समय में वनचिड़ैया कहीं विलुप्त ना हो जाये और मनुष्य को केवल कल्पना की सोनचिड़ैया से ही काम चलाना पड़े।

'बगुले ने गांव नहीं छोड़ा' कविता में कवि गौरैया, बुलबुल, कौवे, चील, मैना, कोयल, बगुला आदि पक्षियों के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए कविता के अंत में राजनीतिक व्यवस्था पर ऐसा करारा चोट करते हैं कि पढ़ने वाला पाठक बिना तिलमिलाए रह नहीं पाता।,

           "कल का बगुला भगत ही
            अब गाँव का प्रतिनिधि रह गया है
            बच्चे 'चिड़िया' का पाठ उसी से पढ़ने लगे हैं।"८

नई कविता ने कविता की लयात्मकता को कम कर विचारात्मक बना दिया है। ऐसे समय में ईश्वर करुण की कविताएं छंदात्मक न होते हुए भी विशिष्ट लय से युक्त है । मेरी नजर में इसका कारण कवि का गीतकार होना है। उनकी 'उदगमंडलम् / नीलगिरि की बारिश' नाम कविता से लय की एक बानगी देखिए,

                           " दूर देश के लोग मगर,
                             बरसा को कोस रहे हैं
                             छोटी-सी औकात में हैं
                             और हाथी पोस रहे हैं,
                             बरसा है कि अपनी धुन में
                             बरस-बरस हँसती है
                             पेड़ों और और पहाड़ों की
                             बस्ती में वह बसती है।"९

रोजी-रोटी के चक्कर में गाँव से पलायन कर शहर में कमाने गए लोगों की विडंबना है कि उन्हें शहरों में किराये के मकान में रहना पड़ता है। उनके गाँव वाले घर में ताला लग जाता है । अपने घर में ताला लगाकर दूसरों के यहाँ किराये पर रहना उनकी मजबूरी होती है। मध्यवर्ग की विडंबना पर ईश्वर करुण ने 'किराये का घर' कविता में लिखा है,

               "आँगन हँसता है
                 देहरी हँसती है
                 और
                 हँसती है घर की दीवारें
                 जब मैं बरसों बाद भी
                 आता हूँ अपने घर !
                 किन्तु शहर में किराये का मेरा घर
                 नहीं हँसता, जहाँ रोज रहता हूँ !
                 वह तो इंतजार करता है
                 मेरे खाली करने का !"१०

 ईश्वर करुण अपने समाज के लिए कुछ कर गुजरना चाहते हैं । उनमें समाज बदलने का जोश मौजूद है जिसे वे कविताओं के माध्यम से व्यक्त करते हैं। इस भाव की अभिव्यक्ति उन्होंने 'प्रण' कविता में किया है,

                     "मैं अपनी आशाओं की
                      जली चिता के
                      कोयले घिस कर,
                      लिखूंगा---
                      गीत नव-निर्माण का।"११

 गाँव की संस्कृति और किस्सागोई से कवि को गहरा लगाव है । किस्सागोई में प्रवीण व्यक्ति जब शहर की भीड़ और जिंदगी की आपाधापी में खप जाता है एवं अपनी सहजता खो देता है तो कवि को दारुण दुख होता है।  'चोरे महथा' कविता में 'चोरे' नाम के ऐसे ही व्यक्ति का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा है,

            "अब चोरे महथा
             किसी शहर में खो गया
             अब कोई चोरे महथा हुआ नहीं करता गाँव में........
             और न उसकी पीढ़ी ही बाकी है।
              चोरे महथा इतिहास का
              हिस्सा बन गया है..."१२

कवि का मानना है कि विज्ञान चाहे लाख तरक्की कर ले लेकिन कविता हमेशा रहेगी । मनुष्य को कविता के पास लौटना ही पड़ेगा। कविता कभी खत्म नहीं होगी । इसी भाव की अभिव्यक्ति कवि द्वारा 'कम्प्यूटर और कविता' नामक कविता में की गयी है,

        "कम्प्यूटर हमारे संचित ज्ञान को बाँटता है, किन्तु
          ज्ञान की मौलिक सर्जना के लिए
          तुम्हें आना ही पड़ेगा कविता के पास।"१३

ईश्वर करुण की कविताओं में वैविध्य देखने को मिलता है । अहिंदी भाषी क्षेत्र में रहते हुए भी हिंदी में कविता लिखना बड़ी बात है। उनकी कविताओं का कहन और बनक लाजवाब है। ईश्वर करुण की कविताओं को पढ़ते हुए पाठकों को ऐसा लगता है मानो वह कविताओं को पढ़ कम और जी ज्यादा रहा है क्योंकि उनकी कविता आम जन की कविता है। यही उनकी कविताओं की सफलता का राज भी है।

सन्दर्भ:
१. ईश्वर करुण, चुप नहीं है ईश्वर, बोध प्रकाशन, ३४-३५,
     वालटैक्स रोड, चेन्नई - ६०००७९, तमिलनाडु,
     ISBN : ९७८-८१-९०६२४४-७-३. पृष्ठ - २७.
२.   वही, पृष्ठ - २९.
३.   वही, पृष्ट - ३८.
४.   वही, पृष्ट - ५६.
५.   वही, पृष्ट - ४७.
६.   वही, पृष्ट - ९३.
७.   वही, पृष्ट - ५३.
८.   वही, पृष्ट - ५०.
९.   वही, पृष्ट - ५१.
१०. वही, पृष्ट - ७७.
११. ईश्वर करुण, पंक्तियों में सिमट गया मन, वंती प्रकाशन,
       मद्रास - ६०००२६, पृष्ट - ३२.
१२. वही, पृष्ट - ३५.
 १३. ईश्वर करुण, चुप नहीं है ईश्वर, बोध प्रकाशन, ३४-३५,
     वालटैक्स रोड, चेन्नई - ६०००७९, तमिलनाडु,
     ISBN : ९७८-८१-९०६२४४-७-३. पृष्ठ - ५५.
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समीक्षक - कुमार सुशान्त
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समीक्षक - कुमार सुशान्त

6 comments:

  1. बहुत आभार आप सभी का...

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  2. सुंदर कविताओं की बढ़िया समीक्षा

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  3. बेहतरीन समीक्षा के लिए साधुवाद...सर की कविताओं के कई रंग से हम वाकिफ हुए.

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  4. चेतना जी, अन नोन भोला जी बहुत धन्यवाद

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  5. बहुत बङिया प्रसतुति

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