Sunday 1 November 2020

नजरिया बदला / कवयित्री - लता प्रासर

कविता 

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(भारत की महिलाओं ने हर क्षेत्र में अपना झंडा गाड़ा है.  अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला हो, प्रथम महिला आईपीएस किरण बेदी हों, खेल में पीटी उषा हों या व्यवसाय में नैनालाल किदवई,  चाहे राजनीति में इंदिरा हों या सुषमा,- जहाँ रहीं अपना झंडा गाड़ा. आइये सहित्यकर्म में बरसों से सक्रिय और अनेक संघर्षों को झेलती हुई अपनी एक पहचान कायम  करनेवाली लता प्रासर की इस विषय पर एक रचना देखते हैं। -संपादक)





 समय बदला है
नज़रिया बदला

अपने इरादों को बदलना
अपने बारे में गहराई से सोचना

बिटिया मां की परछाई नहीं
मां परछाई बनकर साथ है 

धूप छांव में
शहर या गांव में
जुमलों के दांव में
समय बिन गंवाए
अपनी पहचान
अपना ईमान
बचाए रखना 
और
जिंदगी का इम्तिहान
सफल बनाए रखना

उंगली यूं ही
एक-दूसरे की
थामें रहें
या
स्त्रीत्व को बचाए रहें

सफ़र केवल सफ़र नहीं है
जिंदगी का उर्ध्वोत्तर बढ़ना है
सिमोन द बोउआ
इसी की लड़ाइयां लड़ती रहीं

इंदिरा को इसीलिए
ऊपर का रास्ता दिखाया गया
किरण बेदी हाशिए पर गई थी
सोचना

अपने लिए
कौन कहां
जगह बना पाया
सितारों के बीच
कहीं कोई जगह तलाशना ही
जिंदगी का सफ़र है

विचारों से
डिगना नहीं
डरना नहीं
डगमगाना नहीं
विचार ही सीढ़ी है

मानव से मानवता की ओर
जाने का
स्त्री से मनुष्यता तक जाने की
व्यवहार से कर्म तक जाने की
अपनों से अपनेपन तक जाने की

इसलिए हमेशा
विचारों को
बचाए रखना
यही
भूत भविष्य वर्तमान की
पूंजी है

जाओ
और बचा लो
इस सच को
जाओ
जाओ
मिट्टी को याद रखना.
...
कवयित्री -  लता प्रासर
कवयित्री का ईमेल आईडी- kumarilataprasar@gmail.com
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Saturday 31 October 2020

प्यार के तरन्नुम से बदल जाते हैं कुछ लोग / कवि - भास्कर झा

कविताएँ

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1

साथ चलते  चलते बदल जाते हैं कुछ लोग
राह देखते देखते निकल जाते हैं कुछ लोग
पल भर का तमाशा शोहरत ओ जिन्दगानी
जवानी में अक्सर फ़िसल जाते हैं कुछ लोग
रहा वक्त का फ़साना जिन्दगी के सफ़र में
दिल-जिगर को भी निगल जाते हैं कुछ लोग
चंद जज्बात के बहाने यूं ही बेमौत मारते हैं
मैय्यत के नाम पर पिघल जाते हैं कुछ लोग
इन्सान है मगर फिर भी हौसला बुलन्द रख
प्यार के तरन्नुम से बदल जाते हैं कुछ लोग
.....

             
2

लम्बी चुप्पी 
वो लम्बी चुप्पी 
खामोश कर देती है मुझे
और यथार्थ 
मेरी कल्पना को,
बस मूक ही रह जाती है 
सारी अनुभूति मेरी
अभिव्यक्ति की तलाश में...
घुटन सी होती है 
मेरी रूह को
तलाशते तलाशते आवाज़
थक जाती हैं
मेरी एकटक ऑंखें...
इक बेचैन सी 
जद्दोजहद होती है 
इक टीस दबी सी रहती है 
दिल में 
अजीब दर्द के साथ 
छोड़ देता हूँ
मैं तब खुद को 
तुम्हारी सोच के हवाले..
जब आती है मुझे 
नींद थोडी सी भी 
आखिर !
जगा ही देती हो 
तुम 
अपने मीठे मीठे 
उन्मुक्त रूमानी सपनों से !
.....

3

चांद और समाज
आधुनिकता की गोद में 
पलते खेलते मानव 
पहुंच चुका है आसमान और चांद पर
कर चुका है सैर 
पूरे ब्रह्माण्ड की
प्रकृति के ममतामयी सीने को
चीर कर,
दूध की बजाय 
चूस चुका है लाल लाल खून
और अट्टहास करते हुए
घोषणा करता है 
कि वह आज विकसित है…
अत्याधुनिक विज्ञान के नेटवर्क में 
उलट-पुलट, उलझ कर
जुड़ने के नाम पर 
अलग होते जा रहे हैं सब के सब
हमारे बीच 
खड़ी होती जा रही हैं
शिक्षा, प्रगति, बुद्धि, सम्पदा की लम्बी दीवारें,
आगे बढने की होड़ में
रोज पीछे छूटते जा रहे हैं हम…
तथाकथित विकास के नाम पर
अविकसित हो रहे हैं हम
सभ्यता-संस्कृति, मान, मर्यादा
सामय़िक, पारिवारिक, रिश्ते-नाते का बंधन
जंजीर-सा लग रहा है भारी
पूर्ण वस्त्र में सुसज्जित सुन्दरता से 
नाक भौं सिकोड़कर
नग्नता का खेल देखने के 
आदी हो चुके हैं हम…
समाज से कटकर
हाथ में लैपटॉप लिए इतराते छितराते
निर्जन स्थान पर 
जोड़ रहे हैं खुद को एक अनजान दुनिया से,
अपने रिश्ते नातों से खुद
मुंह मोड़ रहे हैं हम….
क्या यही ज्ञान की, समग्र विज्ञान की
गंहराई है, ऊंचाई है
या कि विशेष ज्ञान की है काली परछाई ?
कैसी शिक्षा है कि हम आज
सभी मूल्यों, भावनाओं के प्रति 
उदासीन हो रहे हैं प्रतिदिन,
पश्चिमी सभ्यता के पराधीन हो रहे हैं
भारतीय संस्कृति की नजर में
नराधम हो रहे हैं हम….
...

4

पास आते आते जब 
आ नहीं सकी थी तुम
तब मुझे तुम्हें भूलना
ठीक से आ गया था
मिलते थे रोज हम
बाग और बगीचों में
कुछ सिपहसलार पेड़
खूब मुहैया करवाते थे
प्यार को कुछ छाया
वहीं बनी बैठकी पर
प्रेमागमन का स्वागत
करती पक्षियों की खुशी
हवाओं के बीच तैरती थी
हमे रिझा रिझा कर
और हम एक दूसरो को
भविष्य को सिरहाने बनाकर 
जिन्दगी को समझने की
एक अबूझ आपाधापी में
सो जाया करते थे सपनों में...
फिर कहीं से पता नहीं कहां से
हकीकत का आता था  
तेज हवाओं का एक झोका
और हम उठ जाया करते थे
अपने अपने बिस्तर पर
तुम अपने घर में
मैं अपनी तन्हाई के साथ...
क्योंकि ............
अब तुम आ नहीं सकती थी
कभी भी अपना जख्म दिखाने
अपने दिल की पुकार सुनाने
कारण....
अब तुम गुनगुनाने लग गयी थी
एक स्वभाविक जिन्दगी गीत
खुशी भी मंडराने लगी थी
एक शिकन के साथ चेहरे पर
और र्मैं भी हंसने लगा था
दिली ख्याली पुलाव खाकर....
सच में !
पास आते आते जब 
आ नहीं सकी थी तुम
तब मुझे तुम्हें भूलना
ठीक से आ गया था......
.....

कवि- भास्करानंद झा 'भास्कर'
परिचय -ये कवि भास्कर झा के नाम से भी जाने जाते हैं और अंग्रेजी, हिंदी एवं मैथिली के जाने-माने कवि हैं. इनके दो काव्य संग्रह अंग्रेजी में आ चुके हैं. 
कवि  का ईमेल आईडी - bhaskaranjha@gmail.com
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Friday 17 July 2020

कोरोना काल में मेरी साहित्यिक यात्रा / कंचन कंठ

आत्म-वृतांत 

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कोरोना सचमुच काल ही तो बन कर आया! इसका आगमन तो वर्ष 2019 ई के दिसंबर में ही हो चुका था; चीन के वुहान सिटी से! पर देशवासियों को इसका कोई भान नहीं था। वे इसे विदेशों में फैला हुआ ही समझ रहे थे।
     
जनवरी में कुछ सुगबुगाहट हुई ‌। विदेशों में इसके प्रकोप के किस्से सामने आने लगे‌।एक साथ अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस,जापान, अस्ट्रेलिया, साउथ कोरिया ,न्यूजीलैंड ,इटली, वियतनाम आदि कई देश इसके चपेट में ही नहीं के, बल्कि विभिन्न रुपमें इसके चतुर्दिक फैलतै जाने के समाचारों से प्रिंट और सेल्यूलाइड की दुनिया पट गई।



लेकिन कबूतर के आंख मूंद लेने से बिल्ली के झपटने का खतरा टल तो नहीं जाता! इसने 2020 ई में मार्च आते आते भयंकर रुप धारण कर लिया।जब तक विदेशों में इसका प्रलयंकारी रुप दिख रहा था, हमने इसे भयंकर तो माना, पर समुचित कदम नहीं उठाए।



बाद में जो कुछ हुआ, वह आननफानन में लिए गए कदम थे। ये सही है कि कोरोना का यूं अटैक पूरे विश्व पर पहली बार है। इसके कुछ अलग - अलग से रुप और प्रकार से हम विगत कुछ दिनों में परिचित हुए। चूंकि यह एक कृत्रिम वायरस है, जैसा कि कहा जा रहा है,  इसलिए यह हर तरहक की जलवायु, तापमान और स्थान पर पनपा ही नहीं बल्कि फैला और फलफूल रहा है।


ऐसे में सरकार ने लाकडाउन का फैसला लिया,जो अभूतपूर्व था। पूरे देशमें लाकडाउन होने से समय और रसोई के अलावा सब ठप्प पड़ गए। ये शब्द #लाकडाउन पहिले कभी किसी ने सुना नहीं था, लोगबाग में लाकअप प्रचलित था कि गलत कार्य करने पर पुलिस लाकअप में डाल देगी!


खैर, अब बंद तो बंद! ह र तरफ़ बंद , स्कूलबंद, कालेज बंद, यातायात के साधना बंद, मंदिर बंद, मस्जिद, गुरु द्वारे,चर्च सब बंद! शादी समारोह बंद!


मात्र बैंक, पुलिस,अस्पताल,पोस्ट आफ़िस आदि खुले रहे जिसमें बैंकों पर सरकार द्वारा बांटी गई सहायता राशि के भुगतानों का कार्य भी मत्थे आन पड़ा, उनका सब कार्य यूं सामान्य दिनों की तरह चलाने का काफी दवाब बैंककर्मियों ने झेला और झेल रहे और असमय काल के गावँ में समाये जा रहे संक्रमित होकर। यही हाल रेलकर्मियों और चिकित्सा, पुलिस बल के क्षेत्र से जुड़े लोगों का भी है।


इसमें निजीक्षेत्र के कामगारों को काफी मुसीबतें झेलनी पड़ीं। कारखाने,मिल, आफिस,होटल, बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन आदि के अचानक बंद होने से उनका काम-धंधा छिन गया! मालिकों ने पगार दिये ना दिये या आधा पगार दिया, जिससे उनमें भुखमरी की हालत हो गई।


एक तो नौकरी नहीं ऊपर से ये भयंकर बीमारी! वो करें तो क्या करें! ऐसे में तो सबको अपना वतन, छूटे हुए परिजन ही याद आते हैं। तिसपर कुछ राज्य सरकारों ने परिवहन का झूठा आश्वासन देकर उनकी भीड़ इकट्ठा कर कोई जिम्मेदारी नहीं ली।

तब भूख और भय के मारे हमारे मजदूर भाई बहिनों ने पैदल ही गांव की ओर चलना शुरू किया,जो और घातक सिद्ध हुआ! आखिर हजारों किलोमीटर पैदल कड़कती धूप में चलना उस पर पुलिस और प्रशासन की निर्ममता!
ओह!कितने कितने दुख झेले उन मजदूरों और उनके नौनिहालों ने! कितने हृदयविदारक दृश्य,कितनी मानवता को शर्मसार करने वाली घटनाएं सामने आईं!आए दिन कोरोना की खबरों के अलावा इस तरह की घटनाएं मन-मस्तिष्क को झकझोरती रहीं।


खैर इस कोरोना काल में हम महिलाओं के लिए चतुर्दिक समस्याएं आन पड़ीं! एक तो जिनके परिवारजन पढ़ाई, नौकरी आदि के सिलसिले में दूर दूर हैं, वो तरह तरह की आशंकाओं में घिरी हैं। जिनके सब परिवारजन पास में हैं,मुश्किलें उनकी भी कम नहीं! बाहर से घर आए, सभी बच्चे, बड़ों की खाने पीने की फरमाइशें अलग अलग,घर में सहायता -सेवा के सभी लोग लाकडाउन की वजह से अनुपस्थित! तो पूरे घर की जिम्मेदारी महिलाओं के नाज़ुक कंधों पर। तिस पर तरह -तरह की बीमारियां, जो पहले आराम से मैनेज हो जाती थीं, अभी उनसे निपटना बड़ा ही मुश्किल हो गया है। कोरोना के कारण हस्पताल तक जाना मुहाल है।



लेकिन इस के कारण लोगों को परिवारों के संग मिलकर रहने का मौका लगा। जो अतिव्यस्तता के कारण आपस में बैठना, बातचीत करना, भूल गए थे; अब संग मिल ठहाके लगा रहे हैं। लोगों में नजदीकियां बढ़ीं आपस में प्रेमभाव में वृद्धि हुई।कई परिवारों ने समझ से काम लेकर जिम्मेदारियों को बांटा और सब हंसी-खुशी समय बिता रहे। पर कइयों को इन सबकी आदत ना होने की वजह से मुश्किलें खड़ी हुई हैं।

समाज में इस बीमारी के इंफेक्शन के डर की वजह से तरह तरह की समस्याएं हो रहीं हैं। यह बीमारी खतरनाक तो है, पर लोग बच भी रहे हैं।



जानलेवा उनके लिए है जो पहले से अन्य बीमारियों यथा; मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदयरोग, कैंसर आदि व्याधियों से पीड़ित हैं ; अर्थात् जिनके शरीर में इम्यूनिटी पहले से ही कम है और आज विश्व में पचास के ऊपर तो क्या नीचे की उम्र वाले भी इनसे पीड़ित हैं।

जो कोरोना से  बीमार पड़ते हैं; वो कोरोंन्टाइन करने से कुछ सावधानियां और पंद्रह दिनों के आइसोलेशन से ठीक भी जाते हैं; तो भी पास-पड़ोसके लोग आशंका से भयभीत उन्हें अपने घरों में रहने का विरोध करते हैं। उन्हें तरह तरह से प्रताड़ित किया जाता है कि वह उस स्थान को छोड़ दें।

कोरोना ने परिवार के परिवार खत्म कर डाले हैं।

कोई भी काम करना ; यहां तक कि सब्जी खरीदना तक एक किला फतह करने जैसा कार्य लगता है, सावधानी के ढेर सारे  मानकों का प्रयोग करना होता है।

आनलाइन शापिंग का प्रचलन बढ़ा तो है पर उसमें भी ढेर सारी परेशानियां हैं।
इस समय में सारे निजी अस्पताल और डाक्टरों ने सब क्लीनिक आदि बंद कर रखा है  तो आम जनता का भय दुगुना चौगुना बढ़ गया है। हर वक्त लोग इस सोच में हैं कि कोरोना तो छोड़ो, कोई अन्य बीमारी भी हुई तो कहां जाएं,क्या करें? हम डाक्टर को भगवान माननेवाले लोग अस्पतालों की व्यापारिक बुद्धि के शिकार हो रहे हैं। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद इलाज इतना मंहगा है और उसके बावजूद तमाम तरह की मुश्किलें हैं। 


अब आएं मुद्दे की बात पर! कोरोनाकाल में हमारा साहित्यिक सफर! काफ़ी अच्छा रहा है ये सफ़र! अब जब कि सब जन घर में हैं, कहीं आना जाना नहीं, कोई नौकर-चाकर नहीं। पूरे घर के काम,सब की अलग अलग फरमाइशों से चिड़चिड़े होते मन को साहित्य के विभिन्न आयामों से बड़ी राहत मिली!


साहित्य एक मरहम तो हमेशा से रहा है पर तकनीक का संग लेकर तो उसमें एक अलग ही निखार आया है।इससे इसका क्षेत्र और विस्तृत हुआ। आज घर में बैठे बैठे लोग उन्हें भी देख-समझ पा रहे हैं जो पहले केवल मंच पर ही दिख पड़ते थे।

अब ऐसे समय में हमने अपने मन में उमड़ आए भावों को जो समय मिलता; उसमें फटाफट शब्द देने की कोशिश की!  अभी मिलना - मिलाना तो बंद है, तो साहित्यिक गोष्ठियों, सम्मेलनों का हो पाना असंभव! फिर इसके लिए आभासी मिलन रखे गए;जो अभूतपूर्व कदम था!


इसमें जमे जमाए साहित्यकारों का तो शिरकत करना निश्चित था ही, नवांकुरों को भी अपनी कविताएं, कहानियां लाइव आकर दर्शकों के सामने पढ़ने का मौका कई बार और कई जगहों पर मिला। वरना कब किसी ने सोचा था कि बड़े-बड़े नामों के साथ उन्हें भी लोग सुनेंगे, देखेंगे और समझेंगे।कई लोगों को अंतर्जाल की अनुपलब्धता से क्षोभ भी हुआ,लोग उन्हें सुन नहीं पाए,वो अपनी बात रख नहीं पाए!



इस समय में जो लाइव सेशन रखे गए मुखपोथी पर ; विभिन्न साहित्यिक पन्नों पर उनमें मुझे भी भाग लेने का अवसर मिला; इस तरह का में मेरा पहिला प्रयास था। इससे मुझे अपने मे भावों के अनुरुप उतार चढ़ाव और संप्रेषणीयता पर अपनी खूबी खामियों का पता चला।

बीहनिकथा मैथिली साहित्य में एक नई विधा है जिसमें अधिकतम सौ शब्दों में अपनी कथा यूं कहनी/लिखनी होती है कि मंतव्य स्पष्ट हो जाए। इसमें मैने कई कथाएं पोस्ट कीं। 'खीस', 'जिज्ञासा'  आदि लिखी  हैं ‌। कई अन्य समूह हैं जिनमें अपनी कथाएं भेजीं; जिसमें दो में विजेता भी हुई। खैर,वो कोई बड़ी बात नहीं ; भाग लेना ही महत्वपूर्ण था। कुछ कविताएं भी विभिन्न विषयों पर लिखीं। जो मुझ स्वयं के लिए नितांत नव अनुभव था।


एक समूह में मैने लाइव कविता पाठ भी किया,वो एक  अलग अनुभव रहा , कुछ ऐसा ही था जैसे मंच पर ही हों और समय समय पर आ रहे लोगों के कमेंट्स का यथोचित सम्मान करते हुए अपनी समझ से जबाब देना बड़ा ही उत्साहवर्धक था कि लोग आपको सुन रहे हैं, उन्हें आपकी रचनाएं बांधे हुए है।

एकाध समूहों ने अपना एडमिन भी बनाया,ये मेरे लिए एक नई और सम्मानजनक बात थी।उसमें साप्ताहिक रुप से विमर्श के लिए विचार रखना और फ़िर उस विचार पर सदस्योंके अनुभवों का विश्लेषण करना नितांत आनन्ददायी था। फ़िर अलग अलग क्षेत्र की विदूषियों को लाइव के लिए आमंत्रित कर उनके संघर्ष, उनकी जीवनयात्रा,  महिलाके रुपमें उनकी कठिनाइयां, उनकी सफलताएं जानकार बड़ा अच्छा लगा।

यह भी पता चला कि कैसे एक महिला अपने सम्मान और बच्चे की सही परवरिश की खातिर अपने बददिमाग पति को छोड़कर बिना कुछ गलत बात अपने बच्चे के मनमें डाले उसकी शानदार परवरिश करती है और सास ससुर के प्रति फ़िर भी अपने कर्तव्य को निभाती है।


बिहार की प्रथम महिला एडीजीपी का लाइव किया हमने और वो भी बिल्कुल नौसिखिये की तरह ही घबराई हुई थीं लाइव सेशन में और अपने जीवनके बारेमें बताते हुए रो पड़ीं; कि कैसे बहन को खोने के बाद माता पिता को उस 


यूं तो साहित्य की दुनिया, विज्ञान को इतना महत्व नहीं देती उसे नीरस कहती हैं ,पर ये विज्ञान ही है जिसने आज साहित्य को रसहीन होने से बचाया, तकनीक का साथ लेकर साहित्य ने बहुतों को मानसिक अवसाद से उबारा।मुखपोथी (फेसबुक) के अलग-अलग पन्नों पर अपनी काबिलियत दिखाने का और तुरंत मिलते रेस्पांस से अपनी विद्वता को भी जांचने-परखने-निखारने का अद्भुत अवसर सिद्ध हुआ है।

कोरोना ने जितनी नृशंसता से मानवजाति का संहार किया हो, उससे कुछ अच्छी बातें भी समझ में आईं हैं।विकट परिस्थितियों से जुझने में साहित्य हमारा संबल बनकर उभरा है। नई नई विभिन्न प्रतिभाओं को उभरने का अवसर मिला है।


ये मेरे लिए नितांत नया अनुभव था। चूंकि अभी कोई गोष्ठी या सम्मेलन तो संभव नहीं है। तो इस समय साहित्यक लोगों को उनका मनोबल और रचनाधर्मिता बनाये रखने में तकनीकी ने अभूतपूर्व साथ दिया।



फिर भी अब बहुत हुआ, जल्द कोई वैक्सीन मिले या कोई और इलाज कि हम इससे उबर पाएं! हांलांकि अभी इसकी कोई उम्मीद नहीं दिखती!पर उम्मीद पे दुनिया क़ायम है!
.......

लेखिका - कंचन कंठ 
लेखिका का ईमेल आईडी - kanchank1092@gmail.com
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Tuesday 30 June 2020

I love to fly with my limited wing / Poem by Arjun Prabhat

Poem

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I love freedom,but not without restriction,
For unrestricted freedom leads to anarchy.
That's the root of every custom and tradition,
Whether it be democracy or monarchy.

I love my rights,but not without duty,
For unrestricted rights bring struggle and strife.
Right tempered with duty is real beauty.
It sweetens and makes pleasant our life.

I love friends who hold judicious view,
And make sound criticism on our action.
Who come forward to judge our action and review.
Flattery never resides in their suggestion.

I love to fly with my limited wing.
And compose my humble songs to sing.
...
Poet - Arjun Prabhat
Email ID of the poet - arjunprabhat1960@gmail.com
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Tuesday 16 June 2020

जिनकी चाहतें हौसले के दायरे में नहीं आती / विजय भटनागर

ग़ज़ल 


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जिनकी चाहतें हौसले के दायरे में नहीं आती
उनकी समझ में जिदगी की भूल भुलैया नही आती।

जमीन पर ठीक से चलने की तरकीबें समझ के बाहर
तारे तोड़ने की हसरत भी दिल से निकल नहीं पाती।

कद बढे लेकिन पैर जमीनपर रखने की आदत रखो
जमी से उठे कदमो के तले कभी भी मंजिल नही आती।

हर एक बंदे में बसती है रूह उस परवरदिगार की
बिना उसकी मेहर के जिंदगी में कोई खुशी नहीं आती।

विजय ने हर बंदे मे उस खुदा का नूर  हर पल देखा है
बिना बंदो की दुआ के जिंदगी में बरक्कत नहीं आती।
...

वि= विजय भटनागर 
परिचय- श्री विजय भटनागर एक सेवानिवृत वैज्ञानिक हैं और नवी मुम्बई में अत्यंत सक्रिय कवि हैं जो काव्योदय नामक संस्था के मुख्य आधार-स्तम्भ हैं.
वर्तमान निवास - नवी मुम्बई
ईमेल आईडी - vijatkbhatnagar@gmail.com
मोबाइल-   9224464712
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Wednesday 20 May 2020

डॉ० मधुसूदन साहा रचित कविता संग्रह "मुट्ठी भर मकरंद" की डॉ० विभा माधवी द्वारा समीक्षा

मैं सृजन के द्वार पर अब भी खड़ा हूँ
पुस्तक-समीक्षा

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"नफरतों की राह छोड़ो आज से तुम, 
बेवजह की बात छोड़ो आज से तुम,
काल से भी अधिक घातक गर्व होता-
सोच तानाशाह को आज से तुम।"
समय के साथ प्रासांगिक रहने वाला यह मुक्तक "डॉ० मधुसूदन साहा" की पुस्तक "मुट्ठी भर मकरंद" का एक मकरंद है। बारह प्रकरण में बँटी, तीन सौ साठ मुक्तकों से सजी यह पुस्तक "मुट्ठी भर मकरंद" का सभी मुक्तक अपने आप में बेमिसाल है और समय के साथ हमेशा कदम-ताल मिलाकर चलने वाला है। डॉ० 'साहा' नवगीत के प्रमुख हस्ताक्षर हैं, साथ ही मुक्तक, दोहा, कविता, कहानी, उपन्यास में भी इनकी लेखनी जम कर चली है। 

डॉ० साहा के शब्दों में:- " मुक्तक सचमुच मेरे लिए मुक्ति का संधान ही है। बचपन से आज तक जब भी मुझे दुखों ने आकर घेरा है मेरा अंतर्मन स्वजनों के परायेपन, मित्रों के छलावे और सहकर्मियों के षड्यंत्र से छलनी हुआ है, चार पंक्तियों की छोटे-से छन्द ने मेरे जख्मों को सहलाया हूँ, उन पर चंदन का लेप लगाया है।"

डॉ० साहा अपनी रचनाओं के माध्यम से सबों में  हमेशा प्रेम और सौहार्द बाँटते हैं। आपसी संबंध को घनिष्ठ बनाते हैं। जीवन में हर तरफ बिखरे सौंदर्य से पुस्तक की माणिका सजाते हैं -
"आपसी संबंध की कलियाँ सजाओ,
प्रेम और सौहार्द की गलियाँ सजाओ,
जिंदगी में हर तरफ सौंदर्य बिखरे- 
इस तरह से आज रँगरलियाँ सजाओ।"

 डॉ० 'साहा' का व्यक्तित्व फौलाद का बना है वे वीहड़ों में भी हमेशा बेधड़क चलते रहे हैं। नाग जैसे विषैले लोगों के फुफकार की उन्हें आदत है। वे हमेशा साँप के विवरों के आस-पास ही पले हैं -
"वीहड़ों में बेधड़क हरदम चला हूँ,
हर जगह फौलाद बनकर ही ढला हूँ,
नाग के फुफकार की आदत मुझे है-
पास विवरों के हमेशा से पला हूँ।"

कवि की वेदना को दर्शाता यह मुक्तक:-
"हर जगह मेरा यहाँ विश्वास टूटा,
होंठ तक आकर हमेशा ग्लास फूटा,
कल जिसे मैंने बचाया पतझरों से-
आज उसने ही मधुर मधुमास लूटा।"

जिस पर अटूट विश्वास हो वहीं पर जाकर यदि विश्वास धराशायी हो जाय। जिस कार्य की पूर्णता में कोई संदेह न हो वो कार्य पूर्ण होते-होते अधूरा रह जाय तो होंठ तक आकर ग्लास छूटने के समान है। पतझड़ के मौसम में जिसको संरक्षण दिया गया हो वही आकर मधुमास को लूट ले जाये तो...... क्या हाल होगा?

मनुष्य नियति के हाथों का खिलौना है। नियति जिस तरह नचाती है, मनुष्य कठपुतली की तरह नाचता है। जिंदगी तो सुख-दुख का संगम है। कठिन परिश्रम और संघर्ष से हर मुश्किल के बीच रहते हुए अपने दृढ़ आत्मविश्वास के द्वारा जीवन रूपी नैया की पतवार खेनी पड़ती है जो इत-उत थपेड़े खाते, संघर्षों की लहरों से जूझते हुए आगे बढ़ती है। जिंदगी एक टूटे किनारे की नदी की तरह है समय का बहाव जिधर बहा ले जाय उधर बहना पड़ेगा -
"जो मिला दुख-दर्द वह सहना पड़ेगा,
मुश्किलों के बीच ही रहना पड़ेगा,
जिंदगी टूटे किनारों की नदी है-
जिस तरफ चाहे नियति को बनना पड़ेगा।"

जिंदगी की कठिन संघर्ष से उपजा यह मुक्तक:-
"जिंदगी बस मुश्किलों का सिलसिला है,
हर कदम पर दर्द का टुकड़ा मिला है, 
लाख चाहे आदमी खुद को बचाना-
नियति के आगे किसी का कब चला है?

नियति की मार खाकर टूटकर बिखर जाना हार जाना है। इस जीवन में अश्रु का सैलाब भी है और जीवन के झकोरे की आँधियाँ भी। यदि जीना है तो अंगद की तरह हौसलों का पाँव जमाना पड़ेगा, अन्यथा जीवन रूपी आँधी उड़ा ले जाएगी और मनुष्य का अस्तित्व बिखर जाएगा। तिनका-तिनका होकर उड़ जाएगा। रात चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हो सुबह अवश्य होगा इस विश्वास पर बीत ही जाती है।

"टूट मत जाना नियति की मार खाकर, 
अश्रुपूरित कष्टमय संसार पाकर,
रात जितनी भी बड़ी हो मुश्किलों की-
गुजर जाती सुबह का विश्वास पाकर।"

 डॉ० साहा का यह मुक्तक पढ़कर मुझे बचपन में पढ़ी हुई ये पंक्तियाँ सहसा स्मरण हो आईं:-
"हमें सदा ही बढ़ना है,
गिरकर और फ़िसलकर भी,
जीवन पर्वत पर चढ़ना है।
पहुँचेंगे कब उच्च शिखर पर, 
विघ्न और बाधा से लड़कर,
शिला और शूलों से डरकर,"
उच्च शिखर पर पहुँचने के लिए विघ्न और बाधा से, शिला और शूलों से लड़ना ही पड़ता है। तभी हमें हमारी मंजिल मिलती है।
         
उम्र के इस पड़ाव पर में भी डॉ० साहा सृजन की राह में निरंतर बढ़ते रहे हैं। इनकी रचनाशीलता, सक्रियता सबों पर अमिट छाप छोड़ जाती है -
"उम्र के इस मोड़ तक हरदम लड़ा हूँ,
पर्वतों-सा हर मुसीबत में अड़ा हूँ,
मत कपाटों को अचानक बंद करना-
मैं सृजन के द्वार पर अब भी खड़ा हूँ।

मनुष्य का अपना कर्म ही उसका साथ देता है। हाथ पर हाथ रख कर भाग्य भरोसे बैठने से कुछ नहीं होता है। सिंह चाहे कितना भी बलवान क्यों न हो सोये हुए सिंह के मुँह में हिरण प्रवेश नहीं करता उसी तरह से मनुष्य को अपने कर्मों के द्वारा, अपने परिश्रम एवं लगन से भाग्य निर्मित करना पड़ता है -
"कब तलक तुम अहम में पैठे रहोगे? 
जिंदगी से इस कदर ऐंठे रहोगे?
कुछ करो उद्यम अँधेरा छाँटने का- 
और कब तक भाग्य पर बैठे रहोगे?

बेटियाँ दो घरों की रौनक होती है वह मायका को भी गुलज़ार करती है और ससुराल को भी अपनी खुश्बूओं से महकाती है। उसकी रुनझुन पायल की आवाज घर-आँगन में गूँजती रहती है। ब्याह कर बेटियाँ जब गाँव आती है तो अपने साथ खुशियों भरा संसार लाती है। सपनों की दुनिया अपने पलकों में सजाये उम्मीदों भरा गागर लेकर आती है। पर न जाने क्यों जरा-सा मन के लायक बात नहीं होती है या मनमाफिक दहेज नहीं मिलता है तो ससुराल में उसे ज़बरन जला दिया जाता है। मनुष्य चंद ठीकरों के लिए इतना निर्मम क्यों हो जाता है - 
"ब्याह कर जब बेटियाँ हैं गाँव आतीं, 
साथ खुशियों से भरा संसार लातीं,
पर न जाने सास अपने हाथ से क्यों-
बेरहम बन आग में जबरन जलाती ?

आज हमारी बेटियाँ सिर्फ़ अपने देश में ही नहीं विश्व में अपनी पहचान बना चुकी है। दुनिया का कोई भी क्षेत्र उनकी उपलब्धियों से अछूता नहीं है। आज बेटियाँ अपने सारे अरमान पूरे करती है। लड़कों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में लड़कियाँ चल रही हैं, या ये कहूँ की आज हमारी बेटियाँ बेटों से आगे बढ़ रही है तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। अंतरिक्ष में उड़ाने भर रही हैं हमारी बेटियाँ। साइंस हो या रिसर्च हर क्षेत्र में हमारी बेटियाँ अव्वल रही हैं। राजनीति के क्षेत्र में भी महिलाएँ पुरुषों से अपना लोहा मनवा चुकी हैं। भारत की शान हमारी बेटियों से है -
"विश्व में है देश की पहचान बेटी,  
पूर्ण करती है सभी अरमान बेटी,
'इंदिरा' हो या कि 'प्रतिभा' या 'सुनीता' 
भारतीयों की बढ़ाती शान बेटी।"

आज आये दिन बलात्कार की खबर से अखबार और समाचार चैनल भरे रहते हैं। अपने शहर में हमारी बहु और बेटियाँ सुरक्षित नहीं है। हवस के पुजारियों पर डॉ० साहा का यह कटाक्ष:-
"रोज अपनी हवस फरमाने लगे हैं, 
पास आकर लार टपकाने लगे हैं,
भेडिये अब जंगलों में कहाँ रहते-
शाम होते ही शहर आने लगे हैं।"

कुछ लोग अपने हुनर में बहुत चालाक होते हैं। उनके हर कार्य में अपना फायदा नजर आता है। इनसे जहाँ तक संभव हो दूरियाँ बना कर रखनी चाहिए। ये जिंदगी के सफर में कब डँस लेंगें कुछ पता नहीं -
"ये बड़े चालाक हैं अपने हुनर में,
सिर्फ अपना फायदा रखते नजर में,
दूरिया जितनी रहे हैं उतनी गनीमत-
कौन जाने कब डँसेंगें यह सफर में?"

यदि मनुष्य आपसी सद्भाव और भाईचारे से रहे तो हर चमन की क्यारियाँ खुशबू लुटाएगी और एक खुशनुमा संसार हमारे सामने आएगा -
"अगर सब में आपसी व्यवहार होता,
आदमी से आदमी को प्यार होता,
हर चमन में क्यारियाँ खुशबू लुटातीं-
हर हृदय में इक नया संसार होता।"
           
वक्त का थपेड़ा कब, किसे, किधर उड़ा ले जाए किसी को पता नहीं। भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है कोई नहीं जानता। जब प्रेम और भाईचारा के साथ जब मनुष्यता रहेगी तो निश्चित रूप से स्वर्ग का सौंदर्य धरा पर अवश्य ही उतरेगा -
"वक्त के हाथों कहाँ तक तुम बहोगे? 
कब तलक यूँ अग्नि-पथ में तुम दहोगे?
स्वर्ग का सौंदर्य उतरेगा धरा पर-
साथ मिलकर प्रेम से जब तुम रहोगे।"

जिंदगी जिंदादिली का नाम है। जो जिंदगी के जहर को भी जाम समझ कर पी जाय वो जिंदादिल इंसान है। जिंदगी के हर मुसीबतों और झंझावातों को जो हँस कर झेल जाय जिंदगी उसी के नाम है। जिंदगी के हर गम को भुलाते हुए, अपने आँसुओं को पलकों में छुपाते हुए, अपने होठों पर मुस्कुराहट बनाये रखने की प्रेरणा डॉ० साहा के मुक्तक से लेते हुए निरन्तर आगे बढ़ना है:-
"हैं कहाँ वे लोग जो जीना सिखा दे, 
जहर को हँसकर हमें पीना सिखा दे,
हर जगह ढूँढा ना मिल पाया कहीं भी-
जो जिगर के जख्म को जीना सिखा दे।"
....


कृति:- मुट्ठी भर मकरंद
कृतिकार:- डॉ० मधुसूदन साहा
प्रकाशक:- यतीन्द्र साहित्य सदन
मूल्य:- 150 ₹
पृष्ठ:- 80
समीक्षक - डॉ० विभा माधवी
पता - खगड़िया
समीक्षक का ईमेल अअईडी - bibha.madhawi@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु इस ब्लॉग का ईमेल आईडी - editorbejodindia@gmail.com



Saturday 16 May 2020

One Day / Poet - Dr.Paramita Mukherjee Mullick

Poem

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One day all wars will cease.
All around there will be joy and peace.
 
One day all terrorism will stop.
No guns will boom, no bombs will be dropped.
 
One day all trees will bloom.
There will for everybody be room.
 
One day there will be love and love all around.
All will be brothers and brotherhood abound.
 
One day there will be no poverty, no pain.
Everybody will have food, medication and happiness will reign.
 
One day all hatred will end.
There will be no foes, all a friend.
....
Poet - Dr. Paramita Mukherjee Mullick
Email ID  of the poet - mukherjeeparamita@hotmail.com 
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Thursday 7 May 2020

हे सखी तुम्हरे मिलन को / कवयित्री - विनीता मल्लिक

गीत

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बारिश की नन्ही बून्दे
भीगा गयी मेरे तन को
पर मन अब भी  प्यासा है
हे सखी  तुम्हरे  मिलन को ।

घनघोर घटा जब छाती है 
तेरी याद नई कर जातीं हैं 
कोयल कूके, नाचे मयूर
पर यह मन तरसता है 
हे सखी तुम्हरे  मिलन  को।

दूर मिले क्षितिज और व्योम
सूरज शीतल जैसे सोम
पुलकित सबका रोम रोम
 मम हृद् पिघले जैसे मोम
हे सखी तुम्हरे  मिलन  को ।

सौंधी सुगंध  लाई बहार
गरज दामिनी लाई फुहार  ,
नव पल्लव बौर भी  झंकृत
मेरे मन वीणा की तारें विकल
हे सखी तुम्हरे मिलन को ।

जाने कब  सिमटेगी दूरियाँ
क्या करूँ  घटे मजबूरियाँ
हर क्षण ऐसा सोच सोच के
मन को बेधे घड़ी की सूईया
हे सखी तुम्हरे मिलन को ।

एक-एक पल पहाड़  लगे हैं
डरावनी अब मल्हार लगे हैं
श्रृंगार वस्त्र तक लगे चिढाने 
मन विकल चीत्कार  कर रहे
हे सखी तुम्हरे  मिलन को । 
कवयित्री - बिनीता मल्लिक
ईमेल आईडी - binitamallik143@gmail.com
पता - नई दिल्ली 
प्रतिक्रिया हेतु ब्लॉग का ईमेल आईडी - editorbejodindia@gmail.com




Sunday 3 May 2020

पान सिंह तोमर - एक फिल्म समीक्षा

गुस्से के होते हैं कई-कई रूप

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फ़िल्म समीक्षा
फ़िल्म-पान सिंह तोमर
कलाकार-इरफान खान, माही गिल, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी
निर्देशक-तिग्मांशु धूलिया

कहानी चंबल के बीहड़ की है जहाँ का पान सिंह तोमर रहने वाला है।पान सिंह तोमर अपना साक्षात्कार एक पत्रकार को दे रहा है।कहानी फ्लैस बैक में चलती है।पान सैनिक रहता है किंतु वह बहुत तेज धावक है।इसके तेज दौड़ने की चर्चा धीरे धीरे होने लगती है। 1965 ई में जब भारत पाक युद्ध होता है तो उसे युद्ध में शामिल नहीं होने दिया जाता है जिसका पान को बहुत मलाल रहता है । इसका गुस्सा वह खेल के मैदान में निकालता है।रेस में वह इंटरनेशनल चैंपियन बन जाता है।पान का मामा चंबल का डाकू रहता है जिसके बारे में अपने सीनियर को बताता है। सीनियर उसके मामा को डाकू कहता है तो पान सिंह तोमर कहता है कि वो डाकू नहीं  बागी हैं।"बीहड़ में बागी होते हैं ,डाकू तो संसद में होते हैं"।पान सिंह तोमर रिटायर कर जाता है।

उसका चाचा भंवर सिंह पान की फसलें काट लेता है जबकि बीज, खेत व मेहनत पान सिंह तोमर की रहती है।पान इसकी शिकायत थाना में करता है किंतु कोई भी इसकी शिकायत सुनने को तैयार नहीं है। भंवर सिंह का जुल्म बढ़ने लगता है।मजबूरी में पान सिंह तोमर को बागी बनना पड़ता है।आगे क्या होता है इसके लिए आपको फ़िल्म देखनी चाहिए।

शौक से कोई बागी नाहीं बनत है साहब' जैसे संवाद आपको हमेशा याद रहेगा।इस फ़िल्म के माध्यम से ये दिखाने का प्रयास किया गया है कि प्रशासन पहले लाचार की मदद नहीं करता है  लेकिन वही जब हथियार उठा लेता है तब प्रशासन उसके पीछे पड़ जाता है। जब पान सिंह तोमर इंटरनेशनल चैंपियन बनता है तो कोई नहीं जानता है लेकिन वही जब बागी बन जाता है तो बच्चा बच्चा उसका नाम जान जाता है।उस समय भारत में खेल के दुर्दशा पर भी ध्यान दिलाने का प्रयास किया गया है। इरफान खान का रेस देखते बनता है वहीं उसके संवाद में जो गंभीरता व ठहराव है वह काबिले तारीफ़ है। एक दो दृश्य थोड़ा असहज करते हैं जब वह अपनी पत्नी से मिलता है किंतु अश्लीलता दूर रखते हुए फिल्माया गया है।फ़िल्म का लोकेशन व संवाद कमाल का है।यह फ़िल्म एंटरटेनमेंट के साथ साथ सरकारी तंत्र की खामी को उजागर करती है। पूरी फ़िल्म में आपको कोई भी ऐसा दृश्य नहीं देखने को मिलेगा जिसमें आपको बोरियत महसूस होता हो।इरफान खान की एक्टिंग पूरी फिल्म में बांधे रखती है।

1 अक्टूबर 1980 को पान सिंह तोमर जिंदगी की जंग हार जाता है।यह कहानी सच्ची घटना पर आधारित है।इस कहानी के असली नायक इरफान खान भी 29 अप्रैल 2020 को जिंदगी का असली रेस हमेशा हमेशा के लिए हार जाते हैं।

इस महान कलाकार व बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति को भावभीनी श्रद्धांजलि।
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समीक्षक-अमीर हमज़ा
समीक्षक का ईमेल nirnay121@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@gmail.com

अमीर हमज़ा