गीत
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बारिश की नन्ही बून्दे
भीगा गयी मेरे तन को
पर मन अब भी प्यासा है
हे सखी तुम्हरे मिलन को ।
घनघोर घटा जब छाती है
तेरी याद नई कर जातीं हैं
कोयल कूके, नाचे मयूर
पर यह मन तरसता है
हे सखी तुम्हरे मिलन को।
दूर मिले क्षितिज और व्योम
सूरज शीतल जैसे सोम
पुलकित सबका रोम रोम
मम हृद् पिघले जैसे मोम
हे सखी तुम्हरे मिलन को ।
सौंधी सुगंध लाई बहार
गरज दामिनी लाई फुहार ,
नव पल्लव बौर भी झंकृत
मेरे मन वीणा की तारें विकल
हे सखी तुम्हरे मिलन को ।
जाने कब सिमटेगी दूरियाँ
क्या करूँ घटे मजबूरियाँ
हर क्षण ऐसा सोच सोच के
मन को बेधे घड़ी की सूईया
हे सखी तुम्हरे मिलन को ।
एक-एक पल पहाड़ लगे हैं
डरावनी अब मल्हार लगे हैं
श्रृंगार वस्त्र तक लगे चिढाने
मन विकल चीत्कार कर रहे
हे सखी तुम्हरे मिलन को ।
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