Saturday 31 October 2020

प्यार के तरन्नुम से बदल जाते हैं कुछ लोग / कवि - भास्कर झा

कविताएँ

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1

साथ चलते  चलते बदल जाते हैं कुछ लोग
राह देखते देखते निकल जाते हैं कुछ लोग
पल भर का तमाशा शोहरत ओ जिन्दगानी
जवानी में अक्सर फ़िसल जाते हैं कुछ लोग
रहा वक्त का फ़साना जिन्दगी के सफ़र में
दिल-जिगर को भी निगल जाते हैं कुछ लोग
चंद जज्बात के बहाने यूं ही बेमौत मारते हैं
मैय्यत के नाम पर पिघल जाते हैं कुछ लोग
इन्सान है मगर फिर भी हौसला बुलन्द रख
प्यार के तरन्नुम से बदल जाते हैं कुछ लोग
.....

             
2

लम्बी चुप्पी 
वो लम्बी चुप्पी 
खामोश कर देती है मुझे
और यथार्थ 
मेरी कल्पना को,
बस मूक ही रह जाती है 
सारी अनुभूति मेरी
अभिव्यक्ति की तलाश में...
घुटन सी होती है 
मेरी रूह को
तलाशते तलाशते आवाज़
थक जाती हैं
मेरी एकटक ऑंखें...
इक बेचैन सी 
जद्दोजहद होती है 
इक टीस दबी सी रहती है 
दिल में 
अजीब दर्द के साथ 
छोड़ देता हूँ
मैं तब खुद को 
तुम्हारी सोच के हवाले..
जब आती है मुझे 
नींद थोडी सी भी 
आखिर !
जगा ही देती हो 
तुम 
अपने मीठे मीठे 
उन्मुक्त रूमानी सपनों से !
.....

3

चांद और समाज
आधुनिकता की गोद में 
पलते खेलते मानव 
पहुंच चुका है आसमान और चांद पर
कर चुका है सैर 
पूरे ब्रह्माण्ड की
प्रकृति के ममतामयी सीने को
चीर कर,
दूध की बजाय 
चूस चुका है लाल लाल खून
और अट्टहास करते हुए
घोषणा करता है 
कि वह आज विकसित है…
अत्याधुनिक विज्ञान के नेटवर्क में 
उलट-पुलट, उलझ कर
जुड़ने के नाम पर 
अलग होते जा रहे हैं सब के सब
हमारे बीच 
खड़ी होती जा रही हैं
शिक्षा, प्रगति, बुद्धि, सम्पदा की लम्बी दीवारें,
आगे बढने की होड़ में
रोज पीछे छूटते जा रहे हैं हम…
तथाकथित विकास के नाम पर
अविकसित हो रहे हैं हम
सभ्यता-संस्कृति, मान, मर्यादा
सामय़िक, पारिवारिक, रिश्ते-नाते का बंधन
जंजीर-सा लग रहा है भारी
पूर्ण वस्त्र में सुसज्जित सुन्दरता से 
नाक भौं सिकोड़कर
नग्नता का खेल देखने के 
आदी हो चुके हैं हम…
समाज से कटकर
हाथ में लैपटॉप लिए इतराते छितराते
निर्जन स्थान पर 
जोड़ रहे हैं खुद को एक अनजान दुनिया से,
अपने रिश्ते नातों से खुद
मुंह मोड़ रहे हैं हम….
क्या यही ज्ञान की, समग्र विज्ञान की
गंहराई है, ऊंचाई है
या कि विशेष ज्ञान की है काली परछाई ?
कैसी शिक्षा है कि हम आज
सभी मूल्यों, भावनाओं के प्रति 
उदासीन हो रहे हैं प्रतिदिन,
पश्चिमी सभ्यता के पराधीन हो रहे हैं
भारतीय संस्कृति की नजर में
नराधम हो रहे हैं हम….
...

4

पास आते आते जब 
आ नहीं सकी थी तुम
तब मुझे तुम्हें भूलना
ठीक से आ गया था
मिलते थे रोज हम
बाग और बगीचों में
कुछ सिपहसलार पेड़
खूब मुहैया करवाते थे
प्यार को कुछ छाया
वहीं बनी बैठकी पर
प्रेमागमन का स्वागत
करती पक्षियों की खुशी
हवाओं के बीच तैरती थी
हमे रिझा रिझा कर
और हम एक दूसरो को
भविष्य को सिरहाने बनाकर 
जिन्दगी को समझने की
एक अबूझ आपाधापी में
सो जाया करते थे सपनों में...
फिर कहीं से पता नहीं कहां से
हकीकत का आता था  
तेज हवाओं का एक झोका
और हम उठ जाया करते थे
अपने अपने बिस्तर पर
तुम अपने घर में
मैं अपनी तन्हाई के साथ...
क्योंकि ............
अब तुम आ नहीं सकती थी
कभी भी अपना जख्म दिखाने
अपने दिल की पुकार सुनाने
कारण....
अब तुम गुनगुनाने लग गयी थी
एक स्वभाविक जिन्दगी गीत
खुशी भी मंडराने लगी थी
एक शिकन के साथ चेहरे पर
और र्मैं भी हंसने लगा था
दिली ख्याली पुलाव खाकर....
सच में !
पास आते आते जब 
आ नहीं सकी थी तुम
तब मुझे तुम्हें भूलना
ठीक से आ गया था......
.....

कवि- भास्करानंद झा 'भास्कर'
परिचय -ये कवि भास्कर झा के नाम से भी जाने जाते हैं और अंग्रेजी, हिंदी एवं मैथिली के जाने-माने कवि हैं. इनके दो काव्य संग्रह अंग्रेजी में आ चुके हैं. 
कवि  का ईमेल आईडी - bhaskaranjha@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु इस ब्लॉग का ईमेल आईडी - editorbejodindia@gmail.com





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